खड़गे कांग्रेस के सिपहसालार

कांग्रेस पार्टी के नये अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के चुनाव के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि देश की इस 137 साल सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी के भीतर वर्तमान राजनीति की उन चुनौतियाें का सामना करने की क्षमता में इजाफा हुआ है

Update: 2022-10-20 04:30 GMT

आदित्य नारायण चोपड़ा: कांग्रेस पार्टी के नये अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के चुनाव के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि देश की इस 137 साल सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी के भीतर वर्तमान राजनीति की उन चुनौतियाें का सामना करने की क्षमता में इजाफा हुआ है जिन्होंने देशवासियों को कहीं न कहीं और किसी न किसी स्तर पर उत्तेजित किया हुआ है। पार्टी ने अपनी प्राचीन सुस्थापित परंपरा को अपने अध्यक्ष के सीधे चुनाव की मार्फत पुनर्जीवित कर भारतीय लोकतन्त्र को गतिमान रखने का भी प्रयास किया है, क्योंकि पार्टी में आन्तरिक प्रजातन्त्र अन्ततः सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक तन्त्र का ही हिस्सा होता है। परन्तु इस चुनाव में श्री खड़गे के प्रतिद्वन्दी श्री शशि थरूर को भी जिस प्रकार समर्थन मिला है उससे यह सिद्ध होता है कि पार्टी ने अपने संविधान के अनुसार पूरी तरह निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव कराये। हालांकि शुरू से ही यह माना जा रहा था कि चुनाव श्री खड़गे ही जीतेंगे क्योंकि उनके साथ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का खुला समर्थन था मगर इस माहौल में भी कुल नौ हजार से अधिक वोटों में से श्री थरूर द्वारा एक हजार से अधिक वोट ले जाना बताता है कि उनके द्वारा पार्टी के लिए रखे गये बदलाव के सुझावों को भी कांग्रेस डेलीगेटों ने तवज्जो दी है। अतः श्री खड़गे का दायित्व बनता है कि वह अपना पद सुचारू रूप से संभालने के बाद उन बातों की तरफ भी ध्यान दें जिन्हें श्री थरूर ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान रेखांकित किया था। इसके साथ ही 'भारत जोड़ो यात्रा' पर निकले कांग्रेस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी द्वारा यह कहे जाने से भी पार्टी पर गांधी परिवार के नियन्त्रित प्रभाव की धुंध छट जानी चाहिए कि 'उनकी भविष्य में कांग्रेस में क्या भूमिका होगी, इसका फैसला नये अध्यक्ष श्री खड़गे ही तय करेंगे और पार्टी का एक सिपाही होने के रूप में वह श्री खड़गे के प्रति ही जवाबदेह होंगे?'

वास्तव में वर्तमान समय देश की इस प्रमुख विपक्षी पार्टी के लिए आत्म विश्लेषण का समय भी है जिससे आम जनता के बीच यह सन्देश बेबाक तरीके से जाये कि 75 साल पहले भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने वाली इस पार्टी की वर्तमान राजनीति में 'प्रासंगिकता' कम नहीं हुई है। यह कार्य केवल पार्टी का नेतृत्व ही कर सकता है क्योंकि लोकतन्त्र में नेता वही होता है जिसके मुंह में 'आम जनता' की 'जुबान' होती है। इस जबान को कोई भी राजनीतिज्ञ तभी समझ पाता है जब उसमें 'आम जनता' की समस्याओं और भावना व संवेदनाओं को समझने का 'सलीका' पैदा हो। खुशी की बात है कि श्री राहुल गांधी आजकल भारत की दक्षिण से लेकर उत्तर की यात्रा करके यही काम कर रहे हैं।

लोकतन्त्र में जनता के बीच नेता की उपस्थिति किसी 'जश्न' से कम नहीं होती। इसकी वजह यही है कि इस प्रणाली द्वारा बनी कोई भी सरकार 'जनता की सरकार' ही होती है। कांग्रेस के बारे में यह कथन सबसे अधिक मायने रखता है क्योंकि पिछली सदी का भारत का इतिहास वही रहा है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास रहा है। अतः इतनी विशाल विरासत को बदलते समय में थामे रखना कोई साधारण काम भी नहीं कहा जा सकता। इस विरासत को केवल पारिवारिक दायरे में सीमित करके इस वजह से बरकरार नहीं रखा जा सकता क्योंकि पीढ़ीगत बदलाव की मान्यताएं समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति में पारिवारिक प्रभाव बेशक बहुत महत्व रखता है परन्तु इतना भी नहीं कि उसके आभामंडल में ही नई ज्वलन्त चुनौतियों का सामना किया जा सके। कांग्रेस का इतिहास ही स्वयं इसका साक्षी है।

1963 में जब भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री और देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता पं. जवाहर लाल नेहरू को यह लगा कि कांग्रेस पार्टी के भीतर क्षेत्रीय नेताओं से लेकर केन्द्रीय नेताओं तक में कहीं खुद को जनता से ऊपर समझने और स्वयं के 'निरापद' होने का भाव जाग रहा है तो उन्होंने उस समय तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री स्व. कामराज की शरण ली और उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। कामराज एेसे व्यक्ति थे जिनका बचपन 'भुखमरी' में बीता था। छठी कक्षा में वह अपनी शिक्षा इसलिए जारी नहीं रख सके थे कि उन्हें अपनी मां का पेट भी पालना था। बचपन में एक साधारण कपड़े की दुकान पर नौकरी करते हुए और साथ ही रात में उसकी चौकीदारी भी करते हुए उन्होंने होश संभालने पर राजनीति की तरफ रुख किया और उसमें सफलता की सीढि़यां चढ़नी शुरू की। उनके नेतृत्व में पं. नेहरू ने कांग्रेस का कायाकल्प किया। अतः इससे यह सबक लिये जाने की जरूरत है कि राजनीति में जितना 'जमीन' का महत्व है उतना बड़ी से बड़ी 'शैक्षणिक डिग्री' का भी नहीं है। यह कमाल स्व. कामराज ने तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री रहते किया था और अपने पूर्ववर्ती मुख्यमन्त्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की शिक्षा नीति को जड़ से बदल कर 'बढ़ई' के बेटे के भी 'आईएएस' बनने की शिक्षा प्रणाली की नींव तमिलनाडु में डाली थी और हाई स्कूल तक के विद्यालयों में मुफ्त 'मिड-डे मील' की प्रणाली शुरू की थी। वर्तमान समय में भी कांग्रेस को ऐसे ही जमीन से उठे हुए नेता की जरूरत थी जो श्री खड़गे के रूप में उसने पा लिया है।

श्री खड़गे भी एक गरीब दलित किसान के बेटे हैं और राजनीति में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढे़ हैं। मगर श्री खड़गे की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उनकी प्रतिभा व राजनैतिक क्षमता के आलोक में कांग्रेस से इसके नेताओं का पलायन रुकता है या नहीं और साथ ही आगामी राज्यों के चुनावों में भी कांग्रेस की उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज होती है कि नहीं। यह कार्य तभी हो सकता है जब कांग्रेस अपनी पुरानी 'गुटबाजी' की परंपरा का त्याग भी कर दे क्योंकि खड़गे कि सुलभता आम कांग्रेसी के लिए बहुत सुगम मानी जा रही है।

 

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