कश्मीर और आतंकवाद: इलाज और समाधान केवल कश्मीरी के पास है.!

कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान मिलकर शांति की मंजिल तक का सफर तय कर सकते हैं।

Update: 2021-10-19 10:49 GMT

आशीष कौल

पिछले कुछ दिनों से फिजाओं में बहुत शोर है। हवा में कश्मीर जैसे घुल सा गया है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। कभी किसी कश्मीरी पंडित के खून से रक्तरंजित कश्मीर तो कभी 'जन गण मन' गाने वाले शिक्षकों के खून से लथपथ कश्मीर। कभी किसी सेना के जवान की शहादत को सलाम करता कश्मीर तो कभी आतंकवादियों के मंसूबे निस्तनाबूत करता कश्मीर। 

पता नहीं क्यों 'कश्मीर' के अशांत होते ही सरकारें चिंतन शिविर में चली जाती हैं। चिंता की रेखाएं सबके माथे पर दिखती हैं, पर जमीन पर सेना के अलावा कोई कुछ करता नजर नहीं आता।

दिक्कत ये है कि जब तक सरकार कश्मीर की समस्या को धार्मिक नहीं मान लेती , तब तक इसका सही हल निकल ही नहीं सकता, क्योंकि समस्या को पहचानकर भी न पहचानना ही तो असल समस्या है। 

फिर दूसरी बात ये भी है कि कश्मीरी पंडित को अगर सरकार समस्या का एक हिस्सा मानती है, तो निदान का हिस्सा वो क्यों नहीं है? क्यों हर बात की एक रस्मअदायगी सी होकर रह जाती है? 

कश्मर में आतंक का इलाज सिर्फ एक कश्मीरी कर सकता है, कोई सरकार नहीं। कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान मिलकर शांति की मंजिल तक का सफर तय कर सकते हैं। कश्मीरी मुसलमानों को भी अब ये बात समझ लेनी चाहिए कि उसका वजूद कश्मीरी पंडित के बगैर अधूरा है। 

धारा 370 या बिना 370 के कश्मीरी हिंदू की वापसी की राह कश्मीरी मुसलमानों के दिल से ही निकलती है।

कश्मीरियत को जिंदा रखना है तो घाटी में रह रहे मुसलमानों को समझना होगा कि 1989 में जिस धार्मिक आतंकवाद ने कश्मीरी पंडितों को उनकी अपनी जमीन से बेदखल किया, अगर उस समय आम मुसलमान कश्मीरी ने पंडितों के साथ खड़े होकर विरोध किया होता तो आज कश्मीर में आतंकवाद की लपटें जिंदा न होतीं। 

गलती समझकर, गलती सुधारकर अब वादी में अगर वो खुले दिल से अपने कश्मीरी पंडित भाई बहनों की वापसी का स्वागत कर पाएं, तब असली शांति बहाल होगी।

मेरी किताब 'रिफ्यूजी कैंप 'के नायक अभिमन्यु की ही तरह मेरा भी ये विश्वास है कि किसी भी समाज में शांति उस समाज के लोग ही ला सकते हैं, न सरकार, न पुलिस इसमें कोई बड़ी भूमिका निभा सकती है। 

कोई संदेह नहीं कि इन दिनों हिंदुओं, सिखों और गैर कश्मीरी नागरिकों के खून से सना कश्मीर, शांति की डगर सांकेतिक आयोजनों और उत्सवों के सहारे नहीं, आपसी मेल मिलाप, समझ और विमर्श के सहारे ही चल सकता है। जब तक इस बात को नहीं समझ लिया जाता तब तक गाते रहिये, 'कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं ,बातों का क्या।' 

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