न्यायिक व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद, अब ऑनलाइन सुनवाई को ठोस कानूनी और संस्थागत रूप देने की जरूरत
आखिर में सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश बनने से रोकने के लिए पिछले साल आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री
छात्र नेता, पत्रकार और सरकारी वकील जैसे व्यापक अनुभवों के बाद जज बनने वाले न्यायमूर्ति एन वी रमन्ना योग्य, सौम्य और मानवीय गुणों के धनी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के जज के कॉलेजियम ने 20 साल पहले रमन्ना को हाई कोर्ट का जज बनने से रोकने के लिए दो बार रोड़े अटकाए थे। फिर हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन रोकने के लिए विरोधियों ने उनके खिलाफ याचिका दायर कर दी। आखिर में सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश बनने से रोकने के लिए पिछले साल आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने अनेक शिकायतें दर्ज कराईं।
इन सभी बाधाओं को पार कर कोरोना संकट काल में सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश बनने वाले रमन्ना पूरे देश के लिए उम्मीद की नई किरण लेकर आए हैं। पूर्व प्रधान न्यायाधीश बोबड़े की विदाई समारोह में अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने कहा कि न्यायपालिका में दूरगामी बदलाव के लिए प्रधान न्यायाधीश का कार्यकाल न्यूनतम तीन वर्ष का होना
चाहिए। केंद्र सरकार इस बारे में जल्दी ही कानूनी बदलाव करे, तो जज की वरिष्ठता क्रम का नक्शा ही बदल जाएगा।
पिछले बीस साल के अच्छे-बुरे अनुभवों को चार मुद्दों में समेट कर नए प्रधान न्यायाधीश न्यायिक व्यवस्था में आलोड़न और जजों की चिंतन पद्धति में बदलाव करने की पहल करें, तो पूरे देश की जनता को राहत मिलेगी। पहला मुद्दा है पुलिस द्वारा दर्ज गलत आपराधिक मामले, जिसका शिकार खुद प्रधान न्यायाधीश हो चुके हैं। नागार्जुन यूनिवर्सिटी के छात्र नेता के तौर पर रमन्ना के खिलाफ पुलिस ने फरवरी, 1981 में क्रिमिनल केस दर्ज किया था। यह मामला रमन्ना के हाई कोर्ट जज बनने के दो साल बाद खत्म हुआ। उन्नीस साल से लंबित मुकदमे के बावजूद उनको हाई कोर्ट का जज बनाए जाने से साफ है कि सिर्फ क्रिमिनल केस दर्ज होने से ही किसी को अपराधी नहीं माना जाना चाहिए। इसका एक पहलू यह भी है कि अदालत को ऐसे मामले में जल्दी फैसला कर लोगों की प्रतिष्ठा और परिवार की रक्षा करनी चाहिए।
दूसरा मुद्दा जजों की नियुक्ति व्यवस्था से जुड़ा है। वरिष्ठ जजों के कॉलेजियम की सिफारिश पर केंद्र सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति की जाती है। रमन्ना को हाई कोर्ट का जज बनाने के लिए शुरुआती तौर पर सर्वोच्च न्यायालय जज का कॉलेजियम सहमत नहीं था। पर तत्कालीन कानून मंत्री के हस्तक्षेप के बाद उनकी नियुक्ति संभव हो सकी। न्यायमूर्ति रमन्ना अगले 16 महीने तक कॉलेजियम के प्रमुख रहेंगे। उम्मीद है कि न्यायिक व्यवस्था में गुणवत्ता से समझौता किए बगैर वह महिलाओं समेत सभी वर्ग से जज की नियुक्ति करने के लिए एमओपी यानी मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसीजर में समुचित बदलाव करेंगे।
तीसरा मुद्दा अफसर या जज की नियुक्ति या प्रमोशन के पहले शिकायतों की परंपरा से जुड़ा है, जिनमें से अधिकांश फर्जी ही निकलती हैं। इसलिए गलत या प्रायोजित शिकायत पर दंड की व्यवथा बने, जिससे भविष्य में लाखों बेकसूर लोग गलत शिकायत का शिकार न हो पाएं।
चौथा मुद्दा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की शिकायत से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने जजों के भ्रष्टाचार के साथ न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद के संगठित तंत्र को उजागर किया था। जगन खुद अनेक आपराधिक मुकदमों से घिरे हुए हैं, इसलिए उनके इरादे पर तमाम सवाल उठे। पर उनके द्वारा उठाए गए अनेक मुद्दों पर देशव्यापी बहस जारी है। छह साल पहले भी सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों की पीठ ने एनजेएसी मामले के ऐतिहासिक फैसले में न्यायिक व्यवस्था में सड़ांध की बात कही थी, जिसे दुरुस्त करने के लिए अब ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
पिछले सवा साल से पूरे देश में लगभग लॉकडाउन की स्थिति है, जिसके दुष्परिणाम न्यायिक व्यवस्था में भी देखने को मिल रहे हैं। अदालत में पुराने मुकदमों की सुनवाई और फैसला नहीं हो रहा और नए मुकदमों की आमद बढ़ती जा रही है। कोरोना के दौर में दर्ज हुए अधिकांश आपराधिक मुकदमे पुलिस और प्रशासन ने गलत तरीके से दर्ज किए हैं, जिनसे जनता का उत्पीड़न और बढ़ रहा है। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट अपने विशेष अधिकार का इस्तेमाल कर ऐसे लाखों मुकदमों का एक फैसले से निपटारा कर सकता है। इससे पुलिस और अदालत को भी खासी राहत मिलेगी।
इस काम के लिए उच्च न्यायालय के साथ समन्वय स्थापित कर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल करना चाहिए, जिस बारे में पूर्व प्रधान न्यायाधीश बोबडे ने विदाई भाषण में चर्चा की थी। तीन साल पहले तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र ने अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए आदेश जारी किए थे, जिस पर अगले प्रधान न्यायाधीश गोगोई ने कोई कार्रवाई नहीं की। कोरोना और लॉकडाउन के देशव्यापी संकट और मजबूरी की वजह से अब जजों को ऑनलाइन काम करना पड़ रहा है। आनन-फानन में किए गए बंदोबस्त से कई अदालतों की कार्रवाई का तो यूट्यूब में भी सार्वजनिक प्रसारण हो रहा है। खुफिया एजेंसियों और केंद्रीय गृह मंत्रालय की चेतावनी अनसुनी कर कई जज जूम और व्हाट्सएप जैसे विदेशी एप का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे देश की सुरक्षा को बड़ा खतरा हो सकता है।
अब ऑनलाइन सुनवाई की व्यवस्था को ठोस कानूनी और संस्थागत रूप देने की जरूरत है, जिससे जजों के मनमौजीपन पर रोक लग सके। प्रधानमंत्री मोदी ने अस्पताल जाकर टीका लगवा कर एक अच्छी मिसाल पेश की। लेकन अभिजात जज और उनके कर्मचारियों की सहूलियत के अनुसार उनके लिए घर और ऑफिस में ही जांच और वैक्सीन की वीआईपी व्यवस्था बनाई गई। पिछले साल प्रवासी मजदूरों की तकलीफ को दरकिनार करने वाले जजों ने अब हवाई जहाज में मास्क न पहनने पर खुद ही मामला दर्ज करके आदेश जारी करना शुरू कर दिया है।
लॉकडाउन के दौरान घर को ही अदालत मानने वाले जजों ने अपनी सहूलियत के अनुसार मनमाफिक तरीके से नियम बदल लिए। नए प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में आम जनता के हित में भी अदालतें अपना रवैया बदलने की पहल करें। इससे न्यायिक व्यवस्था को नई ऑक्सीजन की प्राणवायु मिलेगी, जो अदालत की सड़ांध कम करने के साथ अदालत पर जनता का भरोसा भी बढ़ाएगी।
क्रेडिट बाय अमर उजाला