कुल मिला कर यह जो उलझाऊ चक्कर है, उसे समझना आसान नहीं है। अर्थव्यवस्था को 'हार्ड वर्क' से कैसे संभाला और चलाया जा रहा है- इसे 'हार्वर्ड के अर्थशास्त्री' भी शायद ही समझ पाएं।
देश में नव-उदारवाद की नीति अपनाए जाने के बाद सब्सिडी एक बदनाम शब्द हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नीति के संभवतः सबसे प्रखर पैरोकार के रूप में सामने आए, जब 2014 में उन्होंने 'न्यूनतम सरकार' के नारे के साथ चुनाव लड़ा। वे अनेक बार कह चुके हैं कि सरकार कारोबार में रहे, यह सरकार का काम नहीं है। इसीलिए इस खबर चौंकाया है कि मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को 22 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देगी। कहा गया है कि जून 2020 से जून 2022 के तक इन कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमत से कम दाम पर भारतीय उपभोक्ताओं को पेट्रोलियम पदार्थ मुहैया कराए। इससे हुए घाटे की भरपाई अब राजकोष की जाएगी। यह बहुत बड़ी उलझन है। पेट्रोलियम की कीमतों को विनियंत्रित करने का फैसला तो कई वर्ष पहले हो गया था। विनियंत्रण का सीधा मतलब है कि कंपनियां जिस भाव पर कॉमोडिटी खरीदेंगी, उसी के मुताबिक उपभोक्ताओं को बेचेंगी। यानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम बढ़ेगा, तो सबको ज्यादा कीमत चुकानी होगी। वहां दाम घटेगा, तो इसका फायदा उपभोक्ताओं को मिलेगा। मगर हकीकत यह है कि विनियंत्रण एक धोखा साबित हुआ है। और इसके लिए सीधे तौर पर वर्तमान सरकार जिम्मेदार है।
इसलिए कि जब बाजार में पेट्रोलियम अत्यधिक सस्ता हुआ, तब उपभोक्ताओं को उसका लाभ देने के लिए एक्साइज बढ़ा कर उनकी जेब काटी गई। वह सिलसिला ठहरा नहीं है। बताया जाता है कि पिछले वित्त वर्ष तक वर्तमान सरकार ने इस नीति से 24 लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त कमाए थे। तो क्या यह संभव नहीं था कि विनियंत्रण की नीति पर ईमानदारी से अमल किया जाता और उपभोक्ताओं को राहत सरकार इस टैक्स को घटा कर देती? लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब राजकोष से कंपनियों को पैसा देने का मतलब भी यही है कि आम करदाता की जेब से पैसा निकाला जा रहा है। यह करदाताओं पर दोहरी मार है। राजकोषीय दबाव का असर मुद्रास्फीति पर भी पड़ता है। तो यह मार यहीं नहीं ठहरेगी। कुल मिला कर यह जो उलझाऊ चक्कर है, उसे समझना आसान नहीं है। 'हार्ड वर्क' आधारित अर्थव्यवस्था को कैसे संभाला और चलाया जा रहा है- इसे 'हार्वर्ड के अर्थशास्त्री' भी शायद ही समझ पाएं।