देश को बचाना तो दूर की बात है, पहले कांग्रेस पार्टी खुद को ही बचा ले तो बहुत है
एक कहावत है कि एक ही चीज को बार-बार करना और इसके बावजूद अलग परिणामों की आशा करना नासमझी है
राजदीप सरदेसाई का कॉलम:
एक कहावत है कि एक ही चीज को बार-बार करना और इसके बावजूद अलग परिणामों की आशा करना नासमझी है। यह कांग्रेस पर पूरी तरह से लागू होता है। यही कारण है कि हाल ही में जब उसने चिंतन शिविर करके स्वयं को गर्त से उभारने की चेष्टा की तो इसमें भी संशय दिखा।
आखिर जब कोई पार्टी एक के बाद एक चुनाव हारती चली जाए और इसके बाद भी कोई सबक न सीखे तो किसी पांच सितारा होटल में तीन दिन के रिट्रीट से भला वह क्या पा लेगी। चिंतन शिविर से पहले कांग्रेस के एक युवा नेता ने इस स्तम्भकार से कहा था कि कांग्रेस में जल्द ही एक 'क्रांति' होने जा रही है। लेकिन उदयपुर में जारी किए गए घोषणा-पत्र में कोई भी गेम-चेंजिंग विचार नहीं झलका।
मिसाल के तौर पर भाजपा की हिंदुत्व की विचारधारा का सामना करने के लिए कांग्रेसजनों से भारतीयता और वसुधैव कुटुंबकम् को अंगीकार करने को कहा गया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता है कि इससे नए भारत के लिए भारतीय राष्ट्रवाद कैसे आकर्षक विचार बन सकेगा।
एक और क्रांतिकारी कदम का उदाहरण लें : एक परिवार, एक टिकट। ऊपर से देखें तो लगेगा कि जिस पार्टी में वंशवाद की जड़ें गहरी हैं, उसके लिए यह नया फॉर्मूला उसे अतीत की जकड़बंदी से मुक्त करने में सफल होगा। लेकिन इसमें भी झोल है। कहा गया है कि अगर किसी परिवार के दूसरे सदस्य ने पार्टी के लिए निष्ठापूर्ण तरीके से कम से कम पांच साल काम किया हो तो उसे टिकट दिया जा सकता है।
इससे तो गांधी परिवार सहित दूसरे परिवारों के लिए एकाधिक टिकट पाने का रास्ता खुल ही गया। नतीजा क्या रहा? वही ढाक के तीन पात। एक और उदाहरण देखें। चिंतन शिविर में यह सुझाव भी दिया गया कि पार्टी के 50 प्रतिशत पद 50 से कम उम्र वालों के लिए आरक्षित होंगे, जिसमें कार्यसमिति भी शामिल है। साथ ही हर पदाधिकारी के लिए पांच साल के कार्यकाल की सीमा होगी।
पार्टी की युवा समिति ने तो निर्वाचित पदों के लिए रिटायरमेंट की आयुसीमा रखने की भी बात कही, जो कि भाजपा के मार्गदर्शक मंडल जैसा ही विचार था। लेकिन अंत में न तो आयुसीमा तय की गई, न ही यह निश्चित किया गया कि क्या कार्यकाल की सीमा उन पर भी लागू होगी जो लम्बे समय से राज्यसभा के लिए मनोनीत हैं। यह ठोस निर्णय लेने को लेकर कांग्रेस की झिझक को दिखलाता है।
सफल वापसी करने के लिए कांग्रेस को एक आकर्षक नैरेटिव रचना होगा, कार्यकर्ताओं को संगठित करना होगा और करिश्माई नेतृत्व को सामने लाना होगा। अभी तो वह तीनों ही मोर्चों पर नाकाम है।
कांग्रेस को उम्रदराज पार्टी की तरह देखा जाता है, जिसकी कार्यसमिति में 1998 के बाद से चुनाव नहीं हुए हैं। यह ऐसी पार्टी है, जिसमें पार्लियामेंटरी बोर्ड ठीक से काम नहीं कर रहा, जहां संगठन के चुनाव निरंतर टलते रहते हैं, जहां अनेक नेता विफलताओं के बावजूद वर्षों से एक ही पद पर हैं और जहां सोनिया गांधी करीब चौथाई सदी से पार्टी की अध्यक्ष हैं।
क्या ऐसी पार्टी अपने अस्तित्व के समक्ष आए संकट का सामना कर पाएगी? कांग्रेस में आज जो दुविधा की स्थिति है, उसकी सबसे सहज स्वीकृति तो राहुल गांधी की ही तरफ से आई है, जिन्होंने आत्ममंथन करते हुए यह माना कि पार्टी का आम लोगों से सम्पर्क कट चुका है और यही कारण है कि बीते एक दशक से उसका वोट शेयर स्थिर बना हुआ है।
ऐसे में सवाल यह है कि लोगों से सम्पर्क फिर से कैसे स्थापित हो? चिंतन शिविर में पार्टी ने कन्याकुमारी से कश्मीर भारत जोड़ो यात्रा की घोषणा की। लेकिन इतने भर से काम नहीं चलेगा। 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की राम जन्मभूमि यात्रा इसलिए सफल रही थी, क्योंकि हिंदू पुनर्जागरण का उनका संदेश स्पष्ट था।
याद कीजिए, पिछले अक्टूबर में कांग्रेस ने दावा किया था कि वह ईंधन की बढ़ती कीमतों के विरुद्ध एक अनवरत आंदोलन शुरू करने जा रही है, जिसमें पदयात्राएं करने की भी बात कही गई थी। लेकिन अंत में वो तमाम बातें ट्विटर पर शोरगुल पैदा करने से ज्यादा वास्तविक सिद्ध नहीं हुईं। चिंतन शिविर में राहुल गांधी ही कांग्रेस के अघोषित नेता की भूमिका में थे।
वे पार्टी को अपना परिवार कहते हैं और भाजपा की विचारधारा के खिलाफ युद्ध लड़ने की बात करते हैं, लेकिन यह साफ नहीं है कि वे अपने सुधारवादी मंतव्यों का मेल पार्टी में पैठे न्यस्त स्वार्थों से कैसे करेंगे। कांग्रेस सत्ता में आने के लिए छटपटा रही है, लेकिन राहुल सत्ता की राजनीति नहीं करना चाहते। प्रियंका का भविष्य भी अनिश्चित है। इससे पार्टी में गतिरोध आ गया है। लगता है कांग्रेस किसी चमत्कार की राह देख रही है कि शायद किसी चुनाव में उसके भाग्य जग जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)