क्या वाकई में नवीन पटनायक की राजनीतिक जमीन दरक रही है?

बड़ी पुरानी कहावत है- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत

Update: 2021-10-11 12:10 GMT

प्रवीण कुमार  बड़ी पुरानी कहावत है- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. क्या ये कहावत ओडिशा में बीजेडी यानी बीजू जनता दल और लगातार पांच बार के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की राजनीतिक परिस्थिति पर फिट बैठ रही है? क्या यह बात सच है कि कांग्रेस मुक्त भारत अभियान में भाजपा का साथ देकर नवीन पटनायक की बीजेडी इस तरह से फंस गई है कि अब उसे सेफ्रन पॉलिटिक्स से हार का डर सताने लगा है? आज इन सवालों के जवाब तलाशना इसलिए जरूरी हो गए है क्योंकि ओडिशा के जमीन पर तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी इमारतें बुलंद करने में जुटे पड़े हैं.

याद कीजिए वो वक्त जब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा दिया था. तब ओडिशा की बीजेडी सहित कई गैर कांग्रेसी दलों ने तहे दिल से इस नारे की तख्ती को अपने गले में लटकाने में देरी नहीं की थी, क्योंकि ये लोग देश की सबसे पुरानी पार्टी को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान बैठे थीं. हालांकि नवीन पटनायक की अगुवाई वाली बीजेडी पहले ही भाजपा से हाथ मिलाकर एनडीए का हिस्सा बन गई थी ताकि कांग्रेस को सत्ता से दूर रख सके. बीजेडी-भाजपा ने 2000 से 2009 तक ओडिशा में गठबंधन सरकार चलाई, लेकिन यह भी सच है कि नवीन पटनायक को जब यह बात समझ में आ गई कि सत्ता के लिए इस तरह की गलबहियां एक दिन बीजेडी को सत्ता से बाहर कर देगी, दोनों के बीच की राजनीतिक अंतरंगता सीट शेयरिंग के मुद्दे पर टूट गई और दोनों की राहें जुदा-जुदा हो गईं. गैर-कांग्रेसी मुहिम में शामिल होने के 20 साल बाद अब जब कि बीजेडी ने कांग्रेस को जमीनी तौर पर उखाड़ फेंका है, अब वह खुद को मुश्किल परिस्थिति में देख रही है, क्योंकि भाजपा लगातार मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर रही है. बीजेडी के नेता यह अहसास करने लगे हैं कि ओडिशा को 'कांग्रेस मुक्त' करने से क्षेत्रीय दल बीजेडी को उतना फायदा नहीं हुआ, जितना भाजपा को उभरने का मौका मिला.
सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर बीजेडी
भाजपा यहां आदिवासी, दलित, ओबीसी का अधिकतर वोट चुनावों में हासिल करने लगी है जो कभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था. भाजपा की हिन्दुत्व नीति भी ओडिशा में उसके प्रसार के लिए काफी अहम है. लेकिन नवीन पटनायक भाजपा की इस चाल को काफी अच्छे से समझते हैं. शायद इसी का असर है कि धर्म और भाषा की राजनीति से हमेशा दूरी बनाकर चलने वाले नवीन पटनायक अब अपने पिता बीजू पटनायक की तर्ज पर चुनाव प्रचार का शुभारंभ और जीत के बाद जगन्नाथ मंदिर जाने लगे हैं. 2019 के बाद से पटनायक धार्मिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर उड़िया भाषा और संस्कृति को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने लगे हैं, ताकि भाजपा का मुकाबला किया जा सके. सत्ता के गलियारों में इस बात को लेकर खूब कानाफूसी हो रही है कि अपने 5वें कार्यकाल में नवीन पटनायक ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ ली है.
चुनाव में विकास का मुद्दा कितना प्रभाव छोड़ेगा?
16 अक्टूबर 2021 को नवीन पटनायक 75 साल के हो जाएंगे। वर्ष 2000 से वह ओडिशा के मुख्यमंत्री हैं. निश्चित रूप से भाजपा 2024 के विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे को उछालेगी कि जिस सूबे में लगातार पांच बार एक ही शख्स मुख्यमंत्री रहा हो और एक क्षेत्रीय दल बीजेडी की मजबूत सरकार रही हो वह सूबा विकास के नक्शे पर इतना पिछड़ा क्यों है? कोरापुट, बोलांगीर, नुआपाड़ा, नबरंगपुर, मलकानगिरी, कालाहांडी की गिनती सबसे गरीब जिलों में क्यों होती है? अब यहां बड़ा सवाल यह उठता है कि जिस शख्स की राजनीतिक जमीन इतनी मजबूत हो, चुनाव में विकास का मुद्दा कितना प्रभाव छोड़ेगा? इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा में मोदी युग की बात करें तो 2014 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मिली सीटें और वोट प्रतिशत इस बात की तस्दीक करते हैं कि वह कछुए की चाल चलकर बीजेडी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर खड़ी हो गई है. कांग्रेस यहां तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है. 2014 में 147 सीटों वाली विधानसभा चुनाव में बीजू जनता दल ने 43.40 प्रतिशत वोट पाकर 117 सीटें जीती थी वहीं कांग्रेस पार्टी ने 25.70 प्रतिशत वोट हासिल कर 16 और 18 प्रतिशत वोट हासिल कर भाजपा ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2019 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीजेडी का वोट प्रतिशत बढ़कर 44.71 प्रतिशत जरूर हो गया लेकिन सीटों की संख्या घटकर 112 रह गई. वहीं भाजपा 32.49 प्रतिशत वोट के साथ 23 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस 16.12 प्रतिशत वोट के साथ 9 सीटें जीतकर तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. लोकसभा में 21 सीटों की बात करें तो 2014 के मोदी लहर में 20 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली बीजेडी 2019 में 8 सीटें गंवाकर 12 सीटों पर सिमट गई. दूसरी तरफ 2014 में भाजपा ने जहां एक सीट जीती थी वहीं 2019 में 8 सीटों पर जीत दर्ज कर यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि आने वाले वक्त में भाजपा बीजेडी को कड़ी चुनौती देने वाली है. हाल ही में पिपिली विधानसभा उपचुनाव में भी नवीन पटनायक की पार्टी महज 20,916 वोट से ही जीतने में कामयाब रही. भाजपा को यहां 42 फीसदी वोट मिले, जबकि बीजेडी को 53.80 फीसदी वोट मिले. अब सबकी नजर 2022 में राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत और निकाय चुनाव पर लगी है. राजनीतिक पंडितों का साफ मानना है कि आगामी सभी चुनावों में नवीन पटनायक की पार्टी को भगवा दल से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. लोकल बॉडी चुनाव से यह भी पता चल जाएगा कि 2024 लोकसभा चुनाव में हवा किस ओर बहने वाली है. इन चुनावों के आंकड़ों पर भी गौर करें तो 2012 में जिस भाजपा के जिला परिषद सदस्यों की संख्या 36 थी, 2017 में बढ़कर 297 हो गई. ऐसे में यह सवाल यह लाजिमी है कि लगातार 21 साल से सत्ता में रहने के बाद भी क्या नवीन पटनायक की बीजेडी के लिए सचमुच चुनाव जीतना पहले की तरह ही आसान होगा या उन्हें एंटी-इंकम्बेंसी का खामियाजा भुगतना पड़ेगा?
क्या एंटी-इंकम्बेंसी काम करेगी
हालांकि निकट भविष्य में नवीन पटनायक को एंटी-इंकम्बेंसी का खामियाज़ा भुगतने के सवाल को सिरे से खारिज करने वाले जानकारों का साफ कहना है कि आज भी ओडिशा में नवीन पटनायक के भाषण पर पत्थर नहीं, बल्कि तालियां गूंजती हैं. बावजूद इसके कि पूरे देश में वह अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने राज्य की भाषा उड़िया न तो बोल पाते हैं और न ही पढ़-लिख सकते हैं. लोग उन्हें लगातार पांच बार जिता चुके हैं और हर बार पहले के मुकाबले अधिक मतों से. नवीन पटनायक को करीब से देखने व समझने वाले पत्रकार धड़ल्ले से इस बात का उल्लेख करते हैं कि नवीन पटनायक से बड़ा सॉफ्ट और कम बोलने वाला शख्स राजनीति में है ही नहीं. नवीन पटनायक के जीवन के पिछले पन्नों को पलटेंगे तो शुरुआती पांच दशक तक उन्होंने राजनीति की तरफ आंख उठाकर देखा तक नहीं. लेकिन जब उन्होंने एंट्री ली तो खासतौर पर ओडिशा में उनकी टक्कर का कोई राजनेता दिखाई ही नहीं देता। इसलिए विकास के मुद्दे पर ओडिशा की राजनीति में हार जीत का फैसला मुश्किल ही लगता है.
नवीन पटनायक की छवि
दूसरी नवीन पटनायक की छवि भी ओडिशा में बीजेडी की जीत के पीछे बड़ी वजह मानी जाती है. इसकी पुष्टि नवीन पटनायक की जीवनी लिखने वाले रूबेन बैनर्जी की उस बात से होती है जिसमें वो कहते हैं कि एक बार उन्हें 1998 में अस्का संसदीय क्षेत्र से नवीन पटनायक का चुनाव कवर करने का मौका मिला था. जब वो अस्का पहुंचे तो उन्हें नवीन पटनायक कहीं नहीं दिखाई दिए. बड़ी मुश्किल से खोजते-खोजते जब वो ओबरॉय गोपालपुर होटल पहुंचे तो उन्होंने देखा कि खबरों की दुनिया से बेखबर पूल के बगल में बैठे नवीन पटनायक सिगरेट पी रहे हैं. मकसद बताने के बाद नवीन पटनायक इस बात के लिए तैयार तो हो गए कि वह उनके साथ चुनाव प्रचार पर जाएंगे लेकिन साथ में दो शर्तें लगा दीं. पहली ये कि वो अपनी रिपोर्ट में ये नहीं बताएंगे कि प्रचार के दौरान नवीन पटनायक ओबरॉय होटल में ठहरे हैं और दूसरा ये कि वो सिगरेट पीते हैं. शायद वो अपने मतदाताओं को ये संदेश नहीं देना चाहते थे कि भारत के सबसे पिछड़े इलाके में वोट मांगने वाला शख्स एक पांच सितारा होटल में ठहरा हुआ है. राजनीति में इस तरह के अनुशासन का पालन बहुत कम राजनेता कर पाते हैं. यही वजह है कि ओडिशा की जनता नवीन पटनायक को किसी देवता से कम नहीं मानती. यहीं पर भाजपा का राजनीतिक अनुशासन मात खा जाती है. तमाम सियासी परिस्थितियां अनुकूल होते हुए भी नवीन पटनायक की टक्कर का कोई नेता नहीं होने की वजह से भाजपा को ओडिशा की सत्ता में आने के लिए उस दिन का इंतजार करना पड़ेगा जब नवीन पटनायक राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा करेंगे.
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