क्या शराब पीना पाप है और क्या पीने वाले की भारतीयता पर सवाल उठाना चाहिए?

हमारे देश में माना जाता है कि मृत्यु के बाद लोगों की आत्मा को यमराज लेकर जाते हैं

Update: 2022-04-02 07:32 GMT
संदीपन शर्मा।
हमारे देश में माना जाता है कि मृत्यु के बाद लोगों की आत्मा को यमराज (Yamraj) लेकर जाते हैं और उनके जन्म के कर्मों का हिसाब करते हैं. यमराज के कोषाध्यक्ष चित्रगुप्त जी कर्मों की किताब में से उसका लेखा-जोखा देखते हैं और इन्हीं कर्मों के अनुसार मरने वाले को स्वर्ग या नरक भेजा जाता है. हालांकि सदियों पुरानी हमारी इस मान्यता को अब जाकर एक चुनौती मिली है. ये चैलेंज आया है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की ओर से जिन्होंने इस प्रक्रिया को दरकिनार कर खुद ही ये तय करने का जिम्मा लिया है कि कौन अपापी है, कौन महापापी है और कौन भारतीय नहीं है.
जैसा कि कहा जाता है – ये बात सही है कि शराब (Alcohol) कभी-कभी आपके सिर चढ़कर बोलती है. लेकिन इसके नशे में कोई खुद को भगवान नहीं समझने लगता. हालांकि, शराब के अलावा भी एक नशा है जो इंसान पर खूब चढ़ कर बोलता है और यह है सत्ता का नशा. बेशक नीतीश कुमार इन दिनों इसी के मद मे नजर आ रहे हैं. पापों के विषय की बात करें तो नीतीश इस पर आसानी से क्रैश कोर्स करवा सकते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इस दुनिया में सात घातक पाप हैं, कुछ लोग इस संख्या को पांच बताते हैं. उनमें से एक निश्चित तौर पर सत्ता को लगातार बनाए रखने के लिए जानबूझकर किसी का विश्वास तोड़ना यानी विश्वासघात है. नीतीश कुमार को देखकर तो यही लगता है कि इसके बारे में वह कुछ तो जानते ही होंगे.
लेकिन, पुलिस आपकी सांसों में विश्वासघात को नहीं सूंघ सकती. अनैतिकता का फैसला अदालत में नहीं किया जा सकता है. और गरीब मतदाता दोषों और गुणों पर निर्णय नहीं लेते हैं. इसकी उम्मीद बस यमराज से ही की जाती है. आशा है कि किसी दिन नीतीश कुमार भी अपने कर्मों की गणना करेंगे. इससे पहले कि किस्मत उनके लिए ऐसा समय लाए, उन्होंने कुछ बातें याद दिलाने की जरूरत है.
बुरी आदत तो है, लेकिन क्या पाप भी?
शराब पीना एक बुरी आदत हो सकती है. यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकती है. भले ही देश के अधिकांश हिस्से में न हो लेकिन उनके राज्य में शराब पीना एक अपराध भी हो सकता है. मगर शराब पीना निश्चित रूप से कोई पाप नहीं है. और शराब पीने वालों की तुलना में इसे न पीने वाले सभी लोग संत भी नहीं होते.
अनदर राउंड – इस डेनिश फिल्म में ऐसे चार दोस्तों की कहानी बताई गई है जो अपनी जिंदगी में थोड़ा रोमांच लाने के लिए अपने शरीर में अल्कोहल की एक निश्चित मात्रा को बनाए रखने का फैसला करते हैं. फिल्म एक दिलचस्प दृश्य दिखाया गया है. इन चारों में से एक दोस्त – जो एक शिक्षक भी है, एक काल्पनिक चुनाव में अपने छात्रों को तीन उम्मीदवारों में से एक को चुनने के लिए कहता है.
पहला कैंडिडेट पोलियो की वजह से आंशिक रूप से लकवाग्रस्त है. वह उच्च रक्तचाप और एनीमिया का मरीज भी है और साथ कई अन्य गंभीर बीमारियों से भी पीड़ित है. वह अपनी सुविधानुसार झूठ भी बोलता है और राजनीतिक फैसलों के लिए ज्योतिषियों से सलाह लेता है. वह अपनी पत्नी को धोखा देने के साथ ही चेन स्मोकर भी है और शराब का भी सेवन करता है.
दूसरा कैंडिडेट मोटापे का शिकार है और पहले भी तीन बार चुनाव हार चुका है. वह डिप्रेशन का मरीज है और दो बार दिल के दौरे भी झेल चुका है. वह लगातार सिगार पीता है और उसके साथ काम करना लगभग नामुमकिन है. हर रात नींद के लिए वह दो गोलियां खाता है और सोने से पहले शैंपेन, कॉन्यैक, पोर्ट, व्हिस्की की बड़ी मात्रा गटक जाता है.
तीसरा कैंडिडेट एक युद्ध नायक है जो महिलाओं के साथ सम्मान से पेश आता है, जानवरों से बेहद प्यार करता है, कभी धूम्रपान नहीं करता और बीयर भी कभी-कभार ही पीता है.
तीनों के बारे में बताने के बाद टीचर ने अपने छात्रों से पूछा कि वे किसे वोट देंगें.
इस पर हर किसी ने तीसरे कैंडिडेट को वोट देने की बात कही.
तब टीचर जवाब देता है – कमाल है! आप लोगों ने फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट और विंस्टन एल. चर्चिल जैसी हस्तियों को छोड़कर हिटलर को वोट दिया है.
इस उदाहरण से ये साफ हो जाता है कि पाप और पुण्य का शराब पीने से कुछ लेना देना नहीं है.
क्या सच में मदिरापान भारतीय परंपरा में नहीं रहा है?
इस सवाल के जवाब की शुरूआत हम पौराणिक काल की चर्चा से करते हैं. वेदों में वर्णित देवताओं से और उनसे जुड़ी पौराणिक कथाओं से. लेकिन अभी बात करते हैं वर्तमान की. यह तर्क कि भारतीय शराब नहीं पीते हैं, इस विश्वास से उपजा है कि भारतीय संस्कार ऐसे तथाकथित दोषों से हमारी रक्षा करते हैं. शराब पीना गुण की बात हो या न हो लेकिन स्वाद से जुड़ी बात जरूर है. लेकिन, चलिए फिलहाल इस तर्क को भी दरकिनार कर देते हैं. और अभी बस आंकड़ों पर नजर डालते हैं.
हर साल शराब भारतीय अर्थव्यवस्था में खरबों रुपये का योगदान करती है. साल 2000 में, भारतीय राज्यों ने शराब की बिक्री से लगभग 1.75 ट्रिलियन रुपये की कमाई की. यह रकम सकल घरेलू उत्पाद से 1.75 प्रतिशत अधिक है. औसतन, भारतीय राज्यों ने शराब की बिक्री से प्रति माह 15,000 करोड़ रुपये की राशि जुटाई है. यहां सोचने वाली गंभीर बात ये है कि शराब से होने वाला मासिक राजस्व बिहार द्वारा हर वित्तीय वर्ष में स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटित होने वाले धन के लगभग बराबर है.
यहां मुद्दा यह है कि शराब पीना उतना ही भारतीय है जितना कि मांस, या तंबाकू, या ड्रग्स का सेवन करना. इसका कारण यह है कि भारतीय किसी भी अन्य देश के लोगों की तरह पापी पुण्यात्मा हैं (हममें कुछ भी खास नहीं है). लेकिन, पाखंड की संस्कृति ने शुद्धतावादी लोगों और उ नके नैतिक नेताओं को इस तथ्य को स्वीकार करने से रोका हुआ है.नीतीश कुमार को कभी एक शाम दिल्ली के कनॉट प्लेस में जरूर बितानी चाहिए. यहां मंदिरों की तुलना में उनको पब और बार के बाहर ज्यादा लंबी लाइनें नजर आएंगी. इसी से याद आया कि उनको प्रगति मैदान के पास वाले काल भैरव मंदिर भी जाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि यहां देवता को प्रसाद में क्या चढ़ाया जाता है.
शराब पर राजनीति
इस दुनिया में ज्यादातर लोग खुद को श्रेष्ठ महसूस कराने के लिए दूसरों को नीचा दिखाना पसंद करते हैं. कुछ लोग खुद को यह दिखाकर बड़ा साबित करते हैं कि उनके पास अधिक प्रतिभा है, कुछ अपनी प्रॉपर्टी का गुणगान करते हैं, कुछ अपनी शिक्षा का बखान करते हैं तो कुछ बेहतर लुक्स या बॉडी का. बेशक इस तरह के घमंड की लिस्ट लंबी है. अगर आपकी कल्पना में या फिर असल में आपके पास ये गुण नहीं हैं तो हमारे देश में दूसरों को नीचा दिखाने के लिए एक और शॉर्टकट है : बस पीने की उनकी आदत पर उनका मजाक बना दो. यानी बस एक बुरी आदत के आधार पर ही उसकी छवि बना दो. जैसे अमिताभ बच्चन ने अपने एक गाने में कहा है – लोग कहते हैं मैं शराबी हूं… और कुछ नहीं.
राजनेता इसका फायदा बखूबी उठाते हैं. वे भीड़ में किसी को विलेन बनाने के लिए शराब को हथियार बना लेते हैं पीने को एक सामाजिक बुराई के रूप में लेबल करते हैं जिससे दूसरों को बचाया जाना चाहिए (क्या फर्क पड़ता है कि यहां अगर इच्छित लाभार्थी वे खुद हैं जो खुद अपनी कोठरी में छिपकर पीते हैं ). 'शराब पर ऐसी निर्भरता' उन राजनेताओं के लिए अधिक जरूरी या ज्यादा हो जाती है जिनके पास अन्य मोर्चों जैसे कि रोजगार, विकास, बुनियादी ढांचा या विकास – पर जनता को कुछ देने के लिए बहुत कम है. शराब के प्रति दीवानगी उनकी राजनीतिक लत बन जाती है. एक ऐसे नेता की तरह जिसके पास देने या बात करने को और कोई मुद्दा नहीं है, नीतीश कुमार ने भी शराब को अपनी राजनीति का आधार बना लिया है. बाकी सब कुछ तो सिर्फ टॉपिंग है.
जो व्यक्ति शराब पीना चाहता है उसके लिए सबसे अच्छी जगह एक बार है, चाहे वह बाहर हो या उसके घर के किसी कोने में. अगर कोई शराब पीने का हद से ज्यादा आदी हो जाता है तो उसको रिहैब सेंटर में जाना चाहिए. लेकिन, नीतीश कुमार ने बिहार को इन काल्पनिक पापों का प्रायश्चित करने का यातनागृह बना दिया है. उन्होंने शराब पीने के लिए कठोर कानून, सख्त दंड और जेल की सजा की शुरुआत की है. उन्होंने एक साधारण मानव दोष को एक भयानक अपराध में बदल दिया है. उनके कानून जीवन, परिवारों और उनके खुद के राज्य की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर रहे हैं. यहां मजेदार बात यह है कि वह महापाप की गलत परिभाषा भी दे रहे हैं. असली पापी शराब पीने वाला व्यक्ति नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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