अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस: भाषाओं को बचाने की चिंता

पर भारतीय भाषाएं इन विडंबनाओं के बीच लगातार आगे बढ़ती रहेंगी।

Update: 2022-02-21 01:48 GMT

यह संयोग ही है कि जिस फरवरी महीने में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है, उसी फरवरी महीने में भारतीय भाषाओं को लेकर दो घटनाएं घटीं, लेकिन उन्हें खास तवज्जो नहीं मिली। एक घटना जहां संभावनाओं का नया दरवाजा खोलती है, वहीं दूसरी घटना भारतीय भाषाओं को लेकर देश के अभिजात व राजनीतिक वर्ग की मानसिकता को दर्शाता है। 21 फरवरी, 1952 को बांग्ला भाषा के समर्थन में पूर्वी पाकिस्तान में जो आंदोलन शुरू हुआ था, उसी की बुनियाद पर बांग्लादेश की आजादी की नींव पड़ी। उसी की याद में 21 फरवरी को हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।

यह विडंबना ही है कि एक तरफ हिंदी समेत दूसरी ताकतवर भारतीय भाषाओं में बाजार लगातार बढ़ रहा है, लेकिन देशी अभिजात वर्ग और राजनीति इसमें भी अपने लिए अवसर तलाशने की कोशिश में जुटी रहती है। इसका नजारा तीन फरवरी को लोकसभा में दिखा, जब तमिलनाडु के दो द्रमुक सांसदों ने कोयंबटूर से इंटरनेशनल फ्लाइट शुरू होने को लेकर अंग्रेजी में सवाल पूछा। इसका जवाब नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने हिंदी में दिया। इस पर सवाल पूछने वाले सांसदों को कोई एतराज नहीं था, लेकिन कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने विवाद खड़ा कर दिया और कहा कि मंत्री को अंग्रेजी में जवाब देना चाहिए।' संयुक्त राष्ट्र, उसकी संस्था यूनेस्को और भाषाविदों की चिंता है कि दुनिया में कई भाषाएं लगातार मर रही हैं। भाषा विज्ञान मानता है कि हर भाषा अपने साथ एक संस्कृति समाहित किए होती है। जाहिर है कि भाषाओं का मरना संस्कृतियों का मरना है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर हर बार मरती हुई भाषाओं की चिंता की जाती है। यूनेस्को के मुताबिक, भारत में अभी लगभग 450 जीवित भाषाएं हैं। देश की यह समृद्ध भाषायी विरासत गर्व करने लायक है।
लेकिन चिंता की बात है कि हमारे देश की 10 भाषाएं ऐसी हैं, जिसके जानकार 100 से भी कम लोग बचे हैं। इन भाषाओं में ज्यादातर भाषाएं मूल निवासियों द्वारा बोली जाती हैं, लेकिन ये भाषाएं खतरनाक ढंग से विलुप्त होती जा रही हैं। ऐसे माहौल में अगर कोई भाषा बढ़ रही है, तो अव्वल तो राजनीतिक वर्ग को चाहिए कि वह आगे बढ़कर इसका स्वागत करे। लेकिन आज राजनेताओं को विखंडन में ही फायदा नजर आता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो किसी राजनेता को इस बात पर एतराज नहीं होता कि अंग्रेजी में पूछे गए सवाल का जवाब मंत्री हिंदी में क्यों दे रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र के उपमहासचिव रहते इन्हीं शशि थरूर ने संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में हिंदी को शामिल कराने के लिए कोशिश की थी। हालांकि ऐसे माहौल के बीच भारतीय भाषाओं को लेकर अच्छी खबरें भी आ रही हैं। अब अदालतें भी मानने लगीं हैं कि आम आदमी की भाषा में
ही सुनवाई होनी चाहिए और न्याय भी मिलना चाहिए। पूर्व प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े और मौजूदा प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण्णा भी इसे स्वीकार कर चुके हैं। इसकी मिसाल इसी महीने में पटना हाई कोर्ट में दिखी।
पटना के हिंदी प्रेमी वकील इंद्रदेव प्रसाद अक्सर हिंदी में ही याचिका दायर करते हैं। हाल में उन्होंने एक याचिका दाखिल की, तो पटना हाई कोर्ट के न्यायाधीश नियमानुसार उस याचिका का अंग्रेजी में अनुवाद कराने पर अड़ गए, पर इंद्रदेव प्रसाद ने तर्क दिया कि उनके मुवक्किल की ऐसी आर्थिक स्थिति नहीं है कि वह अपने खर्च से अनुवाद करा सके। बाद में न्यायाधीश को इसे स्वीकार करना पड़ा। दरअसल उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में बेशक हिंदी में याचिकाएं दी जा सकती हैं, पर उनका अनुवाद अंग्रेजी में कराना जरूरी होता है। बाकी हाई कोर्ट में तो ऐसी सुविधा भी नहीं है।
बाजार की ताकत भाषाओं को बढ़ा रही है। लेकिन जिन भाषाओं के पास संख्या बल नहीं है, बाजार का ध्यान उन पर नहीं है। जाहिर है, उनको बचाने के लिए सत्ता और समाज को ही आगे आना होगा। बहरहाल, एक बात तो साफ है कि बेशक कुछ भाषाएं मरणासन्न हों, पर भारतीय भाषाएं इन विडंबनाओं के बीच लगातार आगे बढ़ती रहेंगी।

सोर्स: अमर उजाला


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