By NI Editorial
इस सदी के मध्य तक दुनिया की कामकाजी आबादी- यानी 15 से 59 वर्ष उम्र वर्ग के लोगों का 20 फीसदी हिस्सा भारत में होगा। पर ये करेंगे क्या?
संयुक्त राष्ट्र ने औपचारिक रूप से एलान कर दिया है कि अगले वर्ष यानी 2023 में भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। पहले अनुमान 2028 में ऐसा होने का था। लेकिन चीन की आबादी पहले के अनुमान की तुलना में ज्यादा तेजी से गिरी। इसलिए अब साल भर बाद ही भारत को सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश का खिताब मिल जाएगा। अब प्रश्न है कि क्या यह खिताब ऐसा है, जो भारत के लिए नई संभावनाएं खोलेगा? या यह एक ऐसी जिम्मेदारी है, जिसे हमारे नीति निर्माताओं ने ठीक से नहीं निभाया, तो ये तथ्य इस देश और यहां के लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाएगा? सामान्य सिद्धांत यह है कि आबादी अगर उत्पादक क्षमता से लैस हो, तो वह किसी देश या समाज के विकास और समृद्धि का पहलू बनती है। लेकिन शिक्षा, ज्ञान, तकनीक और बड़े सपनों से वंचित आबादी असल में संसाधनों पर ऐसा बोझ बनती है, जिससे संबंधित देश का ताना-बना चरमरा सकता है।
बताया गया है कि इस सदी के मध्य तक दुनिया की कामकाजी आबादी- यानी 15 से 59 वर्ष उम्र वर्ग के लोगों का 20 फीसदी हिस्सा भारत में होगा। अगर यह हिस्सा आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मांग के अनुरूप क्षमता रखे, तो अगले तीन से छह दशकों तक भारत ऐसा देश होगा, जिसके बिना दुनिया अपनी प्रगति की कल्पना नहीं कर पाएगी। लेकिन चिंताजनक पहलू हमारे यहां दिख रहे ट्रेंड हैं। मसलन, हमारी श्रम शक्ति से महिलाएं बाहर होती जा रही हैं। इस उलटे रुझान के कारण लगभग तीन चौथाई महिलाएं आज उत्पादक कार्यों से बाहर हो गई हैँ। उधर शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में ऐसा लगता है कि आधुनिक ज्ञान और विवेक के खिलाफ एक सुनियोजित युद्ध छेड़ दिया गया है। ऐसे में जो बच्चे या नौजवान आगे चल कर कामकाजी उम्र वर्ग का हिस्सा बनेंगे, उनसे उद्योग और तकनीक जगत क्या उम्मीद जोड़ सकेगा? इन सवालों पर तुरंत राष्ट्रीय बहस की जरूरत है। लेकिन निराशाजनक स्थिति यह है कि ऐसी बहस की कोई संभावना नजर नहीं आती। उस हाल में आबादी से जुड़ी संभावनाएं आखिर कैसे साकार हो सकेंगी?