काबुल में भारत के हित: अफगानिस्तान में पिछले 20 साल में बुनियादी ढांचे के निर्माण में तीन अरब डॉलर का निवेश किया

जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर हमला किया था, तब हमारी सरकार ने जो सबसे पहला काम किया

Update: 2021-09-06 07:12 GMT

प्रशांत दीक्षित। जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर हमला किया था, तब हमारी सरकार ने जो सबसे पहला काम किया, वह दूतावास में कार्यरत भारतीय राजनयिकों और कर्मचारियों को सुरक्षित निकालने का था। तालिबान जिस तेजी से अफगानिस्तान के एक के बाद एक शहर पर कब्जा करते जा रहे थे, अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित अफगान सेना ने जिस तरह हथियार डाल दिए, और नतीजतन राष्ट्रपति अशरफ गनी को भागना पड़ा, वह सब भारत को सतर्क करने के लिए काफी था। नई दिल्ली के नीति निर्माताओं की नजर में तालिबान एक आतंकवादी समूह था, जिनकी आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं थी और खासकर महिलाओं के प्रति जिनका रवैया मध्यकालीन था।

भारत के इस रुख का सुबूत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के, जिसका भारत पिछले महीने अध्यक्ष था, एक प्रस्ताव में दिखा, जिसमें तालिबान को आतंकवादियों से गठजोड़ करने वाला संगठन बताया गया था। उस प्रस्ताव के ग्यारह दिन बाद भारत ने तालिबान के प्रति अपना रुख बदला। इसे अफगानिस्तान की सत्ता संभालने जा रहे तालिबान के प्रति स्वाभाविक ही एक सकारात्मक संदेश माना गया। अफगानिस्तान में नई तालिबान सरकार का राजनीतिक नेतृत्व मुल्ला अब्दुल गनी बरादर करेंगे, जबकि कार्यकारी शक्तियां शूरा या धार्मिक परिषद के पास होंगी। शूरा में तालिबान के वरिष्ठ सदस्यों समेत दूसरे नस्लीय समूहों के लोग शामिल होंगे, जबकि महिलाओं को इसमें नहीं रखा जाएगा।
शेर अब्बास स्टेनकजई विदेश मंत्रालय का नेतृत्व करेंगे, जबकि हामिद करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला जैसे पुराने और अनुभवी लोगों के सलाहकारों की भूमिका में होने की ही संभावना है। लड़ाका सरदार से राजनेता बने गुलबुद्दीन हिकमतयार को भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलने की उम्मीद नहीं है। लेकिन खतरनाक हक्कानी नेटवर्क की सरकार में 50 फीसदी हिस्सेदारी होगी। संतुलन बनाने के लिए तालिबान सरकार गठन में संभवतः सबको शामिल करेंगे और इसके जरिये वे विश्व समुदाय को अपने सकारात्मक रवैये का परिचय देना चाहेंगे।
गौरतलब है कि तालिबान के पुराने लोगों ने भारत के प्रति सम्मान जताते हुए दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। उन्होंने भारतीयों को बाहर निकालने के अभियान में मदद की, साथ ही, भारतीय दूतावासों को खाली न करने का अनुरोध किया। दोहा स्थित अपने दूतावास में उन्होंने भारतीय राजदूत से मुलाकात कर यह आश्वासन दिया कि वे अफगानिस्तान में रह रहे भारतीयों की तथा भारत चले गए लोगों की संपत्ति की सुरक्षा करेंगे। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आईएमए (इंडियन मिलिटरी एकेडमी) में पढ़े शेर अब्बास स्टेनकजई का भारत के प्रति दोस्ताना रवैया है। जहां तक अफगानिस्तान में किए गए निर्माण कार्यों की बात है, बहुत से लोगों का तर्क यह है कि वहां तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका ने जिस व्यापक पैमाने पर काम किया, भारत ने वैसा नहीं किया।
यह तर्क विश्लेषण की मांग करता है। सोवियत निर्मित परियोजनाओं से बीती सदी के 60 और 70 के दशक में अफगानिस्तान में विकास हुआ और कमोबेश सामाजिक बदलाव भी आया, पर सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार बनाने के लिए उस पर हमला भी किया। उस दौर में तैयार अनेक परियोजनाएं आज भी सक्रिय हैं। जैसे कि 60 के दशक में बनी सलन सुरंग के कारण उत्तरी अफगानिस्तान से काबुल की दूरी तय करने में 62 घंटे कम लगते हैं। विशाल हाउसिंग कॉम्प्लेक्स के अलावा उसने काबुल पॉलीटेक्निक यूनिवर्सिटी का भी निर्माण किया। पूर्व सोवियत सरकार ने वहां एक रेल-रोड पुल भी बनाया, जो अफगानिस्तान से मध्य एशिया तक जाने वाला मुख्य व्यापार मार्ग है।
जबकि अमेरिका का दावा है कि उसने 2009, 2016 और 2019 में तीन पीढ़ियों की विद्युत इकाई का कार्य पूरा किया है, जिससे अफगानिस्तान को 110 मेगावाट अतिरिक्त बिजली मिल रही है और वर्ष 2023 के अंत तक 35 लाख अफगानों की किफायती ऊर्जा तक पहुंच होगी। उसने कंधार में सौर ऊर्जा प्लांट स्थापित की है, जिससे 75,000 लोगों को स्वच्छ ऊर्जा मिल रही है। अमेरिका ने वहां करीब 2,000 किलोमीटर तक सड़कों की मरम्मत की है और यूनिसेफ की मदद से लोगों को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराया है। इसके अतिरिक्त उसने तीन लाख अफगान सैनिकों को प्रशिक्षित किया है। अलबत्ता इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अफगानिस्तान में अमेरिका ओसामा बिन लादेन का पीछा करते हुए पहुंचा था और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई छेड़ी थी, जो उसके हितों के अनुरूप था।
जहां तक भारत की बात है, तो उसने अफगानिस्तान में पिछले 20 साल में बांध, सड़क और व्यापार से संबंधित बुनियादी ढांचे के निर्माण में तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर का ही दावा है कि अफगानिस्तान के चौंतीसों प्रांतों में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां भारत की 400 से भी अधिक परियोजनाओं की मौजूदगी न हो। इनमें से हेरात प्रांत में सलमा बांध और सीमा सड़क संगठन द्वारा अफगानिस्तान की ईरान से लगती सीमा के पास जारंज-देरालम के बीच 218 किलोमीटर लंबा हाई-वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। चूंकि पाकिस्तान ने अपनी जमीन से भारत को अफगानिस्तान तक पहुंचने की सुविधा नहीं दी है, ऐसे में, इस हाई-वे का रणनीतिक महत्व है, क्योंकि यह भारत को ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान तक पहुंचने का विकल्प देता है।
महामारी के दौरान भारत ने इसी रास्ते से अफगानिस्तान को 75,000 टन गेहूं भेजा था। लेकिन भारत के इन योगदानों को अफगानिस्तान में दूसरी तरह से देखा जाता है। रूस और अमेरिका ने अफगानिस्तान पर कब्जा करने की मानसिकता दिखाई, जबकि भारत का अफगानिस्तान से बहुत पुराना रिश्ता रहा है और कुछ दशक पहले तक भी रवींद्रनाथ के 'काबुलीवाले' भारत के अलग-अलग इलाकों में आते रहते थे। अफगान नागरिक भारतीय शिक्षा संस्थानों में भय और भेदभाव के बगैर शिक्षा प्राप्त करते रहे हैं। अफगानिस्तान के साथ हमारे संबंध को फिर से परिभाषित करने में यही हमारी शक्ति है। जाहिर है, अफगानिस्तान में हमारी अपनी पहचान है, इसलिए हमें किसी महाशक्ति का सहारा नहीं चाहिए।


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