देश ने सर्वानुमति से 1950 में संविधान स्वीकार किया
एक राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) के रूप में देश ने सर्वानुमति से 1950 में संविधान स्वीकार किया, जिसके अधीन देश के लिए शासन-प्रशासन की व्यवस्था की गई। एक गणतंत्र के रूप में भारत की नियति इस पर निर्भर करती है कि हम इसकी समग्र रचना को किस तरह ग्रहण करते हैं और संचालित करते हैं? पिछले सात दशकों में संविधान को अंगीकार करने और उस पर अमल करने में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आईं और जन-आकांक्षाओं के अनुरूप उसमें अब तक शताधिक संशोधन किए जा चुके हैं। राज्यों की संरचना बदली है और उनकी संख्या भी बढ़ी है। इस बीच देश की आंतरिक राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियां लोकतंत्र को चुनौती देती रहीं, पर सारी उठापटक के बावजूद देश की सार्वभौम सत्ता अक्षुण्ण बनी रही।
वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण ने आर्थिक प्रतियोगिता के अवसरों को नया आकार दिया
राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ राज्य की नीतियों में परिवर्तन भी होता रहा है। देश ने अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज की हैं। देश की यात्रा में विकास एक मूल मंत्र बना रहा, जिसमें उन्नति के लक्ष्यों की ओर कदम बढ़ाने की कोशिशें होती रहीं। देश तो केंद्र में रहा, परंतु वरीयताएं और उनकी और चलने के रास्ते बदलते रहे। पंडित नेहरू की समाजवादी दृष्टि से मनमोहन सिंह की उदार पूंजीवादी दृष्टि तक की यात्रा ने सामाजिक-आर्थिक जीवन के ताने-बाने को पुनर्परिभाषित किया। वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण ने आर्थिक प्रतियोगिता के अवसरों को नया आकार दिया, जिसके परिणामस्वरूप समृद्ध एवं अतिसमृद्ध लोगों की संख्या में अच्छी-खासी वृद्धि दर्ज हुई है।
समृद्धि के साथ गरीबी बढ़ी, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा ने स्थिति विस्फोटक बना दी
भौतिक और सामाजिक संरचना के रूप में कोई भी देश एक गतिशील सत्ता होती है। अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब, अशिक्षित और अंतरविरोधों से ग्रस्त बनाकर यहां से विदाई ली। इस सबके फलस्वरूप स्वतंत्र हुआ भारत वैचारिक रूप से वह नहीं रहा, जिसकी कल्पना महात्मा गांधी ने की थी। आज समृद्धि के साथ गरीबी बढ़ी है। कृषि क्षेत्र की सतत उपेक्षा ने स्थिति विस्फोटक बना दी है। सामाजिक सहकार की रचना में भी कई छिद्र होते गए। बेरोजगारी बढ़ी और शिक्षा की गुणवत्ता घटी है। आर्थिक उन्नति का आकर्षण इस तरह केंद्रीय होता गया कि शेष मानवीय मूल्य पिछड़ते गए। सीमित निजी स्वार्थ की सिद्धि के लिए संस्था और समाज के हित की अवहेलना आम बात होती जा रही है।
सत्ता का दुरुपयोग सत्ता का स्वभाव होता जा रहा
राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय चेतना और चिंता को महत्व न देकर छुद्र छोटे हितों को महत्व देने की प्रवृत्ति क्रमश: बलवती होती गई। वंशवाद को प्रश्रय मिलने से राजनीति की सामाजिक जड़ें कमजोर पड़ रही हैं और अवसरवादिता को प्रश्रय मिल रहा है। अब राजनीतिज्ञ समाज से जुड़ने में कम और शासन करने में अधिक रुचि ले रहे हैं। आज ज्यादातर दलों में उम्मीदवारी के लिए मानदंड समाज सेवा, देशभक्ति से अधिक जाति-बिरादरी और बाहुबल बनते जा रहे हैं। इसके साथ ही चुनाव में बढ़ता खर्च राजनीति तक पहुंच को कठिन बनाता जा रहा है। इस पर रोक लगाने के लिए कोई तरीका काम नहीं कर रहा। इससे क्षुब्ध होकर बहुत से लोग खुद को राजनीति से दूर रहने में ही भलाई देखते हैं। इसका सीधा असर नागरिक जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है। राजनीति के क्षेत्र में योग्यता का विचार न होने का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। सत्ता का दुरुपयोग सत्ता का स्वभाव होता जा रहा है।
कानून की नजर में हर व्यक्ति एक-सा है, पर वास्तविकता अभी भी दूर है
हमारा संविधान सामाजिक विविधता का आदर करता है। कानून की नजर में हर व्यक्ति एक-सा है, पर वास्तविकता समानता, समता और बंधुत्व के भाव की स्थापना से अभी भी दूर है। न्याय की व्यवस्था जटिल, लंबी और खर्चीली होती जा रही है। समाज में हाशिये पर स्थित समुदायों को वे सुविधाएं और अवसर नहीं मिलते, जो मुख्यधारा के लोगों को सहज ही उपलब्ध होते हैं। हाशिये के समाज की चर्चा करते हुए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के लोग सबसे पहले ध्यान में आते हैं। विस्थापित मजदूर, दिव्यांग, ट्रांसजेंडर, गरीबी रेखा के नीचे के लोग, महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, मानसिक रूप से अस्वस्थ, अल्पसंख्यक भी हाशिये के समूह हैं। जेंडर आधारित घरेलू हिंसा और यौन हिंसा की घटनाएं जिस तरह बढ़ी हैं, वे चिंता का कारण हैं। देश के विकास का तकाजा तो ऐसे सहज वातावरण का विकास है, जो सबके लिए स्वस्थ, उत्पादक और सर्जनात्मक जीवन का अवसर उपलब्ध करा सके।
कोरोना काल में भारत ने स्वास्थ्य, चुनाव, शिक्षा, अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का डटकर सामना किया
स्वतंत्रता का छंद नैतिक शुचिता और जन गण मन के प्रति सात्विक समर्पण से ही निर्मित होता है। इसके लिए दृढ़ संकल्प के साथ कदम बढ़ाना होगा। भारत जैसा गणतंत्र इकतारा न होकर एक वृंद वाद्य या ऑर्केस्ट्रा जैसा है, जिसके अनुशासित संचालन से ही मधुर सुरों की सृष्टि हो सकती है। देशराग से ही उस कल्याणकारी मानस की रचना संभव है, जिसमें सारे लोक के सुख का प्रयास संभव हो सकेगा। कोलाहल पैदा करना तो सरल है, क्योंकि उसके लिए किसी नियम-अनुशासन की कोई परवाह नहीं होती, पर संगीत से रस की सिद्धि के लिए निष्ठापूर्वक साधना की जरूरत पड़ती है। कोरोना महामारी के काल में विश्व के इस विशालतम गणतंत्र ने सीमा पर टकराव के साथ स्वास्थ्य, चुनाव, शिक्षा और अर्थव्यवस्था के आंतरिक क्षेत्रों में चुनौतियों का डटकर सामना किया और अपनी राह खुद बनाई। यह उसकी आंतरिक शक्ति और जिजीविषा का प्रमाण है।