Indian History: इतिहास को दुरुस्त करने का सही अवसर: कृपाशंकर चौबे

शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास को दुरुस्त करने के लिए देशभर के शिक्षाविदों और विद्याॢथयों से सुझाव मांगे हैं।

Update: 2021-07-20 09:34 GMT

शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास को दुरुस्त करने के लिए देशभर के शिक्षाविदों और विद्याॢथयों से सुझाव मांगे हैं। इतिहास को दुरुस्त करने की यह पहल तार्किक ही है, क्योंकि स्कूलों में अभी जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह एकांगी और पक्षपातपूर्ण है। यह पढ़ाया जाता है कि भारतीय राजाओं ने बड़ी लड़ाई लड़ी और हार गए, किंतु उन्होंने जो युद्ध जीते, उसका वृत्तांत नहीं दिया जाता है। उदाहरण के लिए आठवीं शताब्दी में 36 वर्षों तक युद्ध कर अपने राज्य का विस्तार करते रहे कश्मीर के कर्कोटक नागवंशी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड के बारे में स्कूली इतिहास की किताबें खामोश हैं। उन्होंने अरब के मुसलमान आक्रांताओं तथा तिब्बती सेनाओं को पीछे धकेला था। उनका राज्य पूरब में बंगाल, दक्षिण में कोंकण, पश्चिम में तुॢकस्तान और उत्तर पूर्व में तिब्बत तक फैला था। ललितादित्य ने कश्मीर में मार्तंड मंदिर बनाया था। ग्यारहवीं शताब्दी में गजनवी सेनापति सैयद सालार मसूद गाजी को पराजित करने वाले श्रावस्ती के राजा सुहेलदेव के बारे में भी स्कूली इतिहास की किताबों में सुसंगत विवरण नहीं मिलता। इसी तरह 1741 में डचों को हराने वाले राजा मार्तंड वर्मा के बारे में इतिहास की किताबें प्रकाश नहीं डालतीं। चोल, चालुक्य, देवबर्मन, अहोम राजाओं के बारे में भी इतिहास की किताबें लगभग मौन हैं। दक्षिण भारत से लेकर ओडिशा, बंगाल और पूर्वोत्तर के अनेक प्रतापी राजाओं ने दो-ढाई सौ वर्षों तक शासन किया, पर उनके बारे में स्कूली इतिहास की किताबों में यथोचित विवरण नहीं मिलता। स्कूलों में भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह मुख्यत: दिल्ली का इतिहास है। अभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे समय इतिहास के एकांगी पक्ष को दूर करने का सुअवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

किसी भी देश का इतिहास कितना ही गौरवपूर्ण क्यों न हो, जब तक उसे सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक वह प्रेरणादायी नहीं हो सकता। बहुत कम पुस्तकें हैं जिनसे प्रेरणाएं ली जा सकें। इस दृष्टि से काशीप्रसाद जायसवाल की किताब 'हिंदू राज्य तंत्रÓ और गोविंद सखाराम सरदेसाई द्वारा 12 खंडों में लिखी गई 'भारत का इतिहासÓ को मानक माना जा सकता है। हिंदू राज्य तंत्र पुस्तक दो खंडों में विभक्त है। पहले खंड में आरंभिक काल, महाभारत काल के राजनीतिक ग्रंथ, ईसा चौथी एवं पांचवीं शताब्दी के ग्रंथों, हिंदू धर्मशास्त्रकारों के चौदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक के ग्रंथों, छठी एवं सातवीं शताब्दी के ग्रंथों और आरंभिक मध्य युग के ग्रंथों, नीति एवं धर्म संबंधी ग्रंथों का विवेचन किया गया है। उसके बाद सभा-समितियों के कार्य का विवरण देते हुए हिंदू प्रजातंत्रों के आरंभ का इतिहास बताया गया है। बौद्ध संघ के प्रजातंत्र से लेकर हिंदू प्रजातंत्र का विवरण दिया गया है। मौर्य साम्राज्य, वैदिक काल, हिंदू एकराजत्व का विवरण भी विस्तार से दिया गया है। काशीप्रसाद जायसवाल ने भारतीय दृष्टि से इतिहास लिखा। वही काम गोविंद सखाराम सरदेसाई ने किया। उन्होंने 1000 से 1857 तक का 'भारत का इतिहासÓ बारह खंडों में लिखकर मुसलमान, मराठा और अंग्रेजों के इतिहास का व्यापक, सही और सुसंगत विवरण दिया।
इतिहास में केवल प्रामाणिक तथ्य दिए जाते हैं। पात्र, परिस्थितियां और घटनाएं इतिहाससम्मत होती हैं और इतिहास लिखने वाले के पास उन्हें प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सामग्री होती है, किंतु समस्या तब होती है जब किसी ऐतिहासिक घटना को लेकर इतिहासकारों में मतैक्य न हो। उदाहरण के लिए 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में इतिहासकारों के चार मत हैं। एक मत उन अंग्रेजपरस्त अध्येताओं का है कि 1857 की जनक्रांति गदर-विफल बगावत थी। दूसरा मत उन अध्येताओं का है कि वह जनक्रांति भारतीय सामंतों के स्वार्थ की लड़ाई थी। तीसरे मत में कुछ अध्येताओं ने उस क्रांति में आदिवासियों, दलितों एवं अन्य छोटी जातियों के अन्याय विरोधी संघर्ष की झलक देखी थी तो चौथे मत के इतिहासकारों की राय में 1857 का संग्राम अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता सेनानियों के उत्कट बलिदानों से भरा एक सुनियोजित महासंग्राम था। राष्ट्रीय चेतना जगाने और अंग्रेजी राज्य से मुक्ति का वह पहला संगठित आंदोलन देश की मर्यादा और आत्मसम्मान के लिए लड़ा गया था। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहालयों में प्रमाणों सहित इतना साहित्य आज भी मौजूद है कि कोई देश या व्यक्ति चाहकर भी उससे किनारा नहीं कर सकता। चौथा मत इसलिए सर्वाधिक मान्य हुआ, क्योंकि वह इतिहास भारतीय दृष्टि से लिखा गया।
इसके अलावा उन सभी गैर-राजनीतिक व्यक्तियों का इतिहास भी पढ़ाया जाना चाहिए, जिनका समाज पर असर रहा हो या जिनका राष्ट्र निर्माण में योगदान रहा हो। जैसे छह सौ साल हुए कबीर का जो प्रभाव समाज पर रहा है, उसे केवल साहित्य के विद्याॢथयों के लिए नहीं छोडऩा चाहिए, इतिहास में भी शामिल करना चाहिए। उसी तरह इतिहास के विद्याॢथयों को शंकराचार्य के बारे में भी बताया जाना चाहिए कि किस तरह उन्होंने पूरब में गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा मठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शृंगेरी मठ की स्थापना की। चारों दिशाओं में स्थापित होने वाले ये मठ भारत की एकता का परिचय देने वाले चिन्ह हैं। इसी तरह यह भी बताया जाना चाहिए कि किस तरह स्वामी विवेकानंद ने यूरोप और अमेरिका को वेदांत और योग से परिचित कराते हुए यह बोध कराया था कि वेदांत में सभी धर्मों की एकात्मकता व्यक्त होती है। इसी भांति इतिहास के विद्याॢथयों को यह भी पढ़ाया जाना चाहिए कि बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में किस तरह सखाराम गणेश देउस्कर की किताब 'देशेर कथाÓ का राष्ट्रीय जीवन में कितना व्यापक प्रभाव पड़ा।


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