भारत को पड़ोसी नीति पर गंभीर होना चाहिए, सार्क ठप हो गया है तो अब भारत 'जन-दक्षेस' बनाने पर विचार करे

दिल्ली के ‘सेंटर फॉर पाॅलिसी रिसर्च’ ने हमारी विदेश नीति पर गंभीर शोध-पत्र प्रकाशित किया है

Update: 2021-10-06 06:11 GMT

डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम: 

दिल्ली के 'सेंटर फॉर पाॅलिसी रिसर्च' ने हमारी विदेश नीति पर गंभीर शोध-पत्र प्रकाशित किया है। इसे तैयार करनेवाले विशेषज्ञों में ऐसे लोग भी हैं, जो बरसों विदेश मंत्रालय का संचालन करते रहे हैं। उन्होंने इसमें विदेश नीति के कई पहलुओं का विश्लेषण कर उन्हें बेहतर बनाने के सुझाव दिए हैं। जिस पहलू पर मेरा ध्यान सबसे ज्यादा गया है, वह है- हमारी पड़ोसी नीति!

वे देश जो भारत के पड़ोस में हैं, उनमें दक्षेस (सार्क) के सभी 8 देश आ जाते हैं। भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान और मालदीव इसके सदस्य हैं। जब 1985 में दक्षेस (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) बना, तब अफगानिस्तान इसका सदस्य नहीं था। मैं सोचता हूं कि म्यामांर और ईरान को भी इसका सदस्य बनाना चाहिए। सदियों से अराकान से खुरासान का यह इलाका आर्यावर्त्त के रूप में जाना जाता रहा है। दक्षिण एशिया का यह विशाल क्षेत्र आज भी सांस्कृतिक व आर्थिक दृष्टि से बड़े परिवार की तरह है।

दक्षिण एशिया के सभी देशों की आजादी के बावजूद यहां यूरोपीय संघ या आसियान की तरह कोई क्षेत्रीय संगठन बरसों तक नहीं बना, लेकिन 1985 में जब बांग्लादेश के राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान ने पहल की तो भारत के लगभग सभी पड़ोसी देश सहमत हो गए, लेकिन भारत को पहले से अंदाज था कि भारत-पाक तनातनी इस संगठन का बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है। 2014 में जबसे पाकिस्तान इसका अध्यक्ष बना है, भारत ने इसके शिखर सम्मेलन में भाग ही नहीं लिया है। 'सार्क' के संविधान के मुताबिक शिखर सम्मेलन तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि प्रत्येक सदस्य उसमें भाग न ले।

भारत को डर था कि इस संगठन का दुरुपयोग करने में पाकिस्तान कोई कसर नहीं छोड़ेगा। इसीलिए उसने इसके संविधान में यह प्रावधान करवा दिया था कि कोई भी सदस्य राष्ट्र इसमें द्विपक्षीय आपसी मामले नहीं उठाएगा। लेकिन द्विपक्षीय मतभेद के कारण ही अब दक्षेस लगभग निष्क्रिय हो गया है।

यदि भारत ने दक्षेस के बदले अब पूर्व के सात देशों, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड को लेकर 'बिम्सटेक' संगठन खड़ा कर लिया है, तो पाकिस्तान ने डेढ़ साल में कोरोना के नाम पर चीन के साथ मिलकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका की चार बैठकें बुला ली हैं। ये सारे देश चीन के 'रेशम महापथ' के समर्थक हैं। इन्होंने मिलकर संकल्प लिया है कि दक्षिण एशिया में चीन की मदद से ये गरीबी-उन्मूलन व विकास कार्यक्रम चलाएंगे।

यदि भारतीय विदेश नीति इस वक्त सक्रियता नहीं दिखाएगी तोे आशंका है कि ये देश मिलकर चीन को कहीं दक्षेस का सदस्य बनाने की पहले ही न कर डालें। यों भी चीन नेपाल में रेल की लाइन डालने और पेशावर-काबुल रेलवे बनाने का जिम्मा ले सकता है।

पाकिस्तान जैसे कभी अमेरिका का दामन थामे था, आजकल चीन की नाक का बाल बना हुआ है। चीन आजकल काबुल में तालिबान की गड़बड़झाला सरकार को जो दिल खोलकर मदद दे रहा है, उसके पीछे चीन-पाक गठबंधन ही है। चीन ने ईरान पर भी गलबहियां डाल रखी हैं, क्योंकि परमाणु मुद्दे पर अमेरिका व ईरान के बीच अभी अविश्वास की खाई भरी नहीं है।

नेपाल और श्रीलंका पर चीन ने सिक्का जमा रखा है। भारत के ये पड़ोसी चीन के रेशम महापथ पर तो पहले से ही फिसले जा रहे हैं, इधर भारत के साथ इनके संबंधों में इसलिए भी ढीलापन आ गया है कि इन दोनों देशों में अमेरिका की मदद से बननेवाली सड़कों की योजना भी रद्द हो गई हैं। माना जा रहा है कि दोनों योजनाएं चीन-विरोधी हैं।

अमेरिका के बढ़ते प्रभाव का अर्थ भारत की पकड़ का मजबूत होना लगाया जा रहा है। जहां तक म्यांमार का सवाल है, पिछले 20-25 वर्षों में चीन ने इस बौद्ध देश की अर्थव्यवस्था पर कब्जा-सा कर लिया है। इसके साथ उसका व्यापार 1.4 बिलियन डाॅलर का है। चीन बर्मी तेल और गैस लाने के लिए रेल और पाइप लाइनें बिछा रहा है। वहां बिजली-उत्पादन के लिए अरबों रु. लगा रहा है।

दूसरे शब्दों में चीन की कोशिश है कि भारत को वह चारों तरफ से घेर ले। उसके सभी पड़ोसी चीन के चप्पू बन जाएं। चीन की यह रणनीति गलवान घाटी की मुठभेड़ से भी ज्यादा खतरनाक है। इसका मुकाबला करने के लिए 'सेंटर फार पाॅलिसी रिसर्च' के शोधपत्र में कई सुझाव दिए गए हैं। उनमें से यह भी है कि पाकिस्तान से भारत बात शुरू करें।

हमारी सरकार के अपने कुछ ठोस तर्क हो सकते हैं, इस रास्ते के विरुद्ध! लेकिन ऐसा है तो मैं समझता हूं कि यह बिल्कुल सही समय है जबकि भारत और पड़ोसी राष्ट्रों के प्रबुद्ध नागरिकों को मिलकर एक नए संगठन 'जन-दक्षेस' (पीपुल्स सार्क) की स्थापना करनी चाहिए।

नया 'पीपुल्स सार्क' बने
यह बिल्कुल सही समय है जब भारत और पड़ोसी राष्ट्रों के प्रबुद्ध नागरिकों को मिलकर एक नए संगठन 'जन-दक्षेस' (पीपुल्स सार्क) की स्थापना करनी चाहिए और उसमें मध्य एशिया के पांचों-राष्ट्रों को भी जोड़ लेना चाहिए ताकि संवाद-भंग की स्थिति खत्म हो और दो अरब लोगों का यह आर्य-परिवार संपन्न और सुखी बन सके।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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