भारत कोकिला को नमन

सरोजिनी नायडू उन महिलाओं में से एक रही हैं जिनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है़

Update: 2022-03-02 05:31 GMT
By देवेंद्रराज सुथार.
सरोजिनी नायडू उन महिलाओं में से एक रही हैं जिनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा है़ वर्ष 1925 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता करने के बाद वे राष्ट्रीय स्तर की कुछ महिला नेताओं में शुमार हो गयीं़ बाद के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने पहली बार राष्ट्रगान का सस्वर गायन किया. अपनी सुरीली आवाज के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से उन्हें 'भारत कोकिला' की उपाधि मिली.
उनका जन्म 13 फरवरी, 1879 को वैज्ञानिक और शिक्षाविद अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और बंगाली कवयित्री वरदा सुंदरी के घर हुआ था. वह आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं. उनके एक भाई वीरेंद्रनाथ क्रांतिकारी और दूसरे भाई हरिंद्रनाथ कवि, कथाकार और कलाकार थे. एक मेधावी छात्रा होने के साथ ही वह उर्दू, तेलुगु, अंग्रेजी, बंगाली और फारसी भाषाओं में भी पारंगत थीं.
उनके पिता चाहते थे कि वह गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनें, लेकिन उनकी रुचि कविता में थी. उन्हें कविता लिखने का कौशल विरासत में मिला था. अपनी काव्य लेखन प्रतिभा का परिचय उन्होंने बचपन में ही दे दिया था. महज बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ पास की. उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में ही एक लंबी कविता 'लेडी ऑफ द लेक' और 13 वर्ष में एक विस्तृत नाटक लिख अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दे दिया था.
हैदराबाद के निजाम उनकी कविता से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी. वर्ष 1895 में 16 वर्ष की उम्र में वह लंदन के किंग्स कॉलेज और बाद में ग्रिटन कॉलेज, कैंब्रिज में पढ़ने गयीं. यहां पढ़ते हुए उनकी मुलाकात उस दौर के प्रख्यात कवि आर्थर साइमन और एडमंड गॉस से हुई.
एडमंड गॉस ने नायडू को भारत के पहाड़ों, नदियों, मंदिरों और सामाजिक परिवेश को अपनी कविता में शामिल करने के लिए प्रेरित किया. नायडू ने 19 वर्ष की उम्र में डॉ एम गोविंदराजुलू से शादी कर ली. लगभग बीस वर्षों तक वे कविताएं और लेखन कार्य करती रहीं. इस दौरान उनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. उनके काव्य संग्रह 'बर्ड ऑफ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' से बतौर कवयित्री उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली. उनका पहला कविता संग्रह 'द गोल्डन थ्रेसहोल्ड' 1905 में प्रकाशित हुआ और काफी लोकप्रिय रहा.
देश की राजनीति में आने से पहले सरोजिनी नायडू ने गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रीका में एक स्वयंसेवक के रूप में काम किया था. वर्ष 1930 के 'नमक सत्याग्रह' में भी वह बतौर स्वयंसेवक गांधी जी के साथ रहीं. वह गांधी जी से पहली बार 1914 में ब्रिटेन में मिली थीं. जब इंग्लैंड में वह गांधी जी से पहली बार मिलने गयीं, तो गांधी जी को देखकर चौंकी जरूर, पर उनसे प्रभावित भी हुईं.
उन्होंने देखा कि गांधी जी जमीन पर कंबल बिछाकर बैठे हुए हैं और उनके सामने टमाटर और मूंगफली का भोजन परोसा हुआ है. सरोजिनी नायडू ने गांधी जी की प्रशंसा तो सुनी थी, लेकिन उन्हें कभी देखा नहीं था. जैसा कि वे खुद वर्णन करती हैं, 'कम कपड़ों में गंजे सिर, एक अजीब हुलिये वाला व्यक्ति और वह भी जमीन पर बैठकर भोजन कर रहा है.'
गांधी जी अपने पत्रों में नायडू को कभी-कभी डियर बुलबुल, डियर मीराबाई, तो कभी मजाक में अम्माजान और मदर भी लिखते थे. नायडू भी मजाक के इसी अंदाज में उन्हें कभी जुलाहा, कभी लिटिल मैन, तो कभी मिकी माउस संबोधित करती थीं.
जब महात्मा गांधी देश में भड़की हिंसा को शांत करने की कोशिश कर रहे थे, तब सरोजिनी नायडू ने उन्हें शांति का दूत बताया और हिंसा रोकने की अपील की. महिला मुक्ति की समर्थक नायडू का मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह हमेशा समानता की अधिकारी रही है. इन्हीं विचारों के साथ उन्होंने महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने का काम किया. 2 मार्च, 1949 को राज्यपाल पद पर रहते हुए उनका निधन हो गया.
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है. इसे भला कौन रोक पाया है. स्वयं सरोजिनी नायडू ने अपनी एक कविता में मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था, 'मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक, मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक.' काश! ऐसा हो पाता. सरोजिनी नायडू को भारत कोकिला, राष्ट्रीय नेता और नारी मुक्ति आंदोलन के समर्थक के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा.
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