India China Conflict: भारत ही करेगा चीन का स्वप्न भंग

दम लेंगे।' यह संकल्प आज भी भारत के जवानों और देशभक्त जनता को शक्ति और विश्वास के धागों से बांधता है।

Update: 2022-12-15 03:03 GMT
तवांग क्षेत्र के यांग्त्से मोर्चे पर चीनी सैनिकों के चोरी-छिपे घुसपैठ-हमले को नाकाम कर भारत ने बीजिंग के बेलगाम शी शासन को हतप्रभ कर दिया है। भागते हुए पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के जवानों के वीडियो दुनिया भर में वायरल हुए हैं। यह चीन के पुनः नियुक्त राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी छवि को एक करारा धक्का है। लेकिन सीमा प्रेक्षक, सैन्य विशेषज्ञों और कूटनीतिक पंडितों के अनुसार, यह घटना सीमित महत्व की है। शी जिनपिंग के चीनी स्वप्न में इन घटनाओं की निरंतरता एक सामान्य प्रक्रिया है और अचानक इन आक्रमणों में वृद्धि अब भारत को हैरान नहीं करती। हां, चीन को आश्चर्य हो रहा है कि भारत उसको बढ़ी हुई ताकत और तीव्र आक्रामकता के साथ पीछे खदेड़ने में सफल हो रहा है। उसे अब तक यही लगता था कि चीनी सैनिक आगे बढ़ेंगे, भारत विरोध प्रदर्शन करेगा और कुछ दिन बाद बात भुला दी जाएगी। पर अब ऐसा नहीं होता।
भारत की चीन के साथ कुल सीमा 3,488 किलोमीटर है। इन सीमा क्षेत्रों में चीन की घुसपैठ लगातार हुई है, लेकिन सर्वाधिक घटनाएं लद्दाख और अरुणाचल के क्षेत्र में हुई हैं, जो चीन के लिए अधिक सामरिक महत्व के क्षेत्र हैं। वर्ष 1962 से अब तक चीन के साथ सीमा-विवाद अनेक पड़ावों से गुजरा है, लेकिन मार्च, 2013 में शी जिनपिंग के सत्तासीन होने के बाद स्थिति में नाटकीय परिवर्तन हुआ और अपने पिछले समझौतों को तोड़ते हुए चीन ने आक्रामक घुसपैठ में वृद्धि की। विवाद शी जिनपिंग से पहले भी थे, लेकिन वह समाधान की इच्छा भी जताता था। वर्ष 1967 में चुंबी घाटी में भारत ने चीन को जबर्दस्त चोट पहुंचाई थी और उसके बाद हुए समझौते के फलस्वरूप वर्ष 1967 से 2020 यानी गलवां की घटना तक के 53 वर्षों में भारत-चीन के सैनिकों के बीच एक भी गोली नहीं चली। वर्ष 1993 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ से सीमा-विवाद पर जो समझौता हुआ, उसमें बारीकी से उल्लेख है कि सीमा पर हथियार जमा नहीं होंगे, बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती नहीं होगी, यदि कोई सैन्य अभियान चलाना है, तो एक दूसरे को बताए बिना ऐसा नहीं किया जाएगा। कारगिल युद्ध के समय चीन ने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया, बल्कि मूक दर्शक बना रहा।
विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव और चीनी मामलों के विख्यात जानकार टीसीए रंगाचारी बताते हैं कि जून, 1999 में जब कारगिल युद्ध चल रहा था, तब विदेश मंत्री जसवंत सिंह और विदेश सचिव रघुनाथ की चीन यात्रा सफल रही थी। वर्ष 1996 में चीन के राष्ट्रपति च्यांग की मिन भारत आए और यहां से पाकिस्तान गए थे, जहां पाकिस्तानी संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने पाकिस्तान को सलाह दी थी कि वह कश्मीर भूल जाए और भारत से संबंध सुधारे। इस पर पाकिस्तान में बड़ा उबाल उठा था। शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद चीन की विस्तारवादी नीतियों में आक्रामकता आई। भारतीय सीमा पर आक्रामकता, हिंसा, गोलीबारी (गलवां), लंबे समय तक सैनिकों द्वारा कब्जा बनाए रखना (दोकलाम में 73 दिन बाद कब्जा हटा), और वैश्विक मंच पर भारत का तीव्र विरोध शी के अहंकार और विस्तारवाद का परिचायक है। दक्षिण चीन सागर में भी इसी तरह उसने नए द्वीप बना दिए हैं। वहां वह अपने लोगों को बसाकर दुनिया की आंखों में धूल झोंकता है कि ये क्षेत्र उसके पास प्राचीन काल से हैं। उसने नाथुला और अरुणाचल में वही नीति अपनाकर नए गांव बसा दिए हैं।
वास्तव में चीन इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि भारत अब दब्बू नहीं रहा है, बल्कि दोगुनी ताकत से चीन का मुकाबला कर रहा है। भारत के सैन्य सशक्तीकरण, सीमाओं पर पक्की सड़कों के बेतहाशा निर्माण, अरुणाचल से लेकर उत्तराखंड और लड़का तक वायुसेना की तैनाती, नए युद्धक विमानों के निर्माण और रूस के साथ-साथ इस्राइल और अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत का चतुर्मुखी रणनीतिक (क्वाड) गठबंधन चीन की आंखों का शूल बना है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र का नाम ही चीन को चुभता है। भारत के वियतनाम, जापान, सिंगापुर, थाईलैंड, म्यांमार एवं आसियान देशों से बढ़ते सामरिक संबंध उसके चीनी स्वप्न के विस्तारवादी गुब्बारे की हवा निकालते हैं। चीन अपने पड़ोस में महाशक्ति के रूप में उभरते भारत को नहीं देखना चाहता।
चीन भारत के पड़ोस में श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अपने आर्थिक शिकंजे और प्रभाव को बढ़ाते हुए एक ओर भारत को घेरने का षड्यंत्र रचता है, दूसरी ओर सीमा पर आक्रामकता को बढ़ाता है। यह लंबे समय तक चलने वाला है। चीन इस प्रतीक्षा में कि कब भारतीय नेतृत्व कमजोर हो और उसकी बढ़त पर पहले की तरह मौन रखे। जरा-सी चूक या कमजोरी बाजी पलट सकती है। इसीलिए मोदी के सशक्तीकरण अभियान से चीन बेहद परेशान है। पंडित नेहरू के समय भारत ने पुलिस को अंतरराष्ट्रीय सीमा की पेट्रोलिंग हेतु तैनात किया था। तब चुशुल से नेफा तक तैनात जवानों के पास ऊनी वर्दियां नहीं थीं। सैनिकों के पास प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की बंदूकें थीं। अब देश के पास सर्वश्रेष्ठ हथियार हैं, वैश्विक छवि है, पश्चिम के देश साथ में हैं। यांग्त्से में चीन के तीन सौ सैनिकों को भारत की पचास सैनिकों की एक टुकड़ी ने भगा दिया।
तब और आज की हकीकत में जमीन-आसमान का फर्क है। नेहरू शासन में भारत ने चीन और पाकिस्तान के हाथों एक लाख पचीस हजार वर्ग किलोमीटर भूमि गंवाई। इसे वापस लेने का संकल्प संसद द्वारा फरवरी, 1999 में सर्वसम्मति से लिया गया है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने यह प्रस्ताव पारित किया था कि 'यह संसद भारतीय नागरिकों के इस दृढ़ संकल्प को दोहराती है कि भले ही लड़ाई कितनी ही लंबी और कठिन क्यों न हो, हम शत्रु (चीन) को भारत की पवित्र भूमि से खदेड़ कर ही दम लेंगे।' यह संकल्प आज भी भारत के जवानों और देशभक्त जनता को शक्ति और विश्वास के धागों से बांधता है।

 सोर्स: अमर उजाला 

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