जीव विकट समस्या में

मेरी समस्या यह नहीं कि भोलाराम को अभी तक भी पेंशन नहीं लगी है

Update: 2021-09-29 05:33 GMT

मेरी समस्या यह नहीं कि भोलाराम को अभी तक भी पेंशन नहीं लगी है। यह उसकी निजी समस्या है। और यहां किसी को किसी की निजी समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। असल में परसाई के जमाने में मरने के बाद दफ्तर की जिन फाइलों के नीचे फैमिली पेंशन के इंतजार में भोलाराम का जीव यमपुरी जाने के बदले इसलिए छिपा था, कि जो उसके परिवार को फैमिली पेंशन लग जाए तो वह फैमिली की टेंशन से मुक्त हो यमपुरी गमन करे। पर ये अब तक न हुआ तो न हुआ। पता नहीं क्यों आदमी को फैमिली की चिंता जिंदा रहते उतनी नहीं होती, जितनी अपने मरने के बाद होती है? पर अब भोलाराम के जीव ने जिंदों की देखा देखी में उस दफ्तर की फाइलें सरेआम दिन दहाड़े बेचनी शुरू कर दी हैं, उस दफ्तर की सीक्रेसी बेचनी शुरू कर दी है। अब वह पेंशन तो छोड़ो, मंथली पगार से बीस गुणा अधिक हर दफ्तर की सीक्रेट फाइलें बेच इज्जत से कमा रहा है। अपने इस नेक काम से वह भी खुश है और फाइल के ऊपर वाले भी। अब उसके मरने के बाद उसके घरवाले तो परेशान हैं ही नहीं, वह भी अब परेशान नहीं है। मरने के बाद भी दफ्तर में इतने मजे किए जा सकते हैं, भोलाराम के जीव को अब मालूम हुआ। मेरी विकट समस्या यह भी नहीं कि मातादीन जो चांद पर प्रतिनियुक्ति पर गया था कि वह अभी तक वहां से लौट कर नहीं आया।

उसके यहां से जाने के बाद अब भ्रष्टाचार का कारोबार करने वाले उसके हजारों चेले चांटे हो गए हैं। उससे भी कई कदम आगे के। उन्हें जब सामने से जो मरा मुर्गा भी आता दिखता है तो अपनी टोपी सीधी कर, बढ़ी हुई तोंद को अंदर करने की बेकार कोशिश करते, अपनी तोंद पर और भी कसकर पेटी बांधते, मरे मुर्गे की गरदन पर छुरी रख तनकर खड़े हो जाते हैं। मेरी विकट समस्या यह है कि मुझे व्हाट्सएप, मैसेंजर, फेसबुक आदि को चलाना बिल्कुल नहीं आता। इन्हें चलाने के लिए मैं ही जानता हूं मैंने कितनी कोशिश नहीं की? सच कहूं तो इन्हें चलाने को जितनी कोशिश की, उतनी मैंने किसी जन्म में किसी को चलाने की कोशिश नहीं की। इन्हें न चला पाने को लेकर मेरी अपने बच्चों से लेकर दोस्तों तक में इतनी फजीहत होती रही है कि अब मैंने अपनी फजीहत के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है। इन्हें न चला पाने के चलते मेरे दोस्तों ने तो मेरे दोस्तों ने, मेरे परिवार वालों तक ने मुझे मिट्टी का माधो घोषित कर दिया है। जब तक आदमी कुछ घोषित नहीं होता तब तक उसकी आधी पौनी इज्जत बची रहती है, पर जब वह कुछ घोषित हो जाता है तो…।
उनका मत है कि आज की तारीख में गधे को व्हाट्सएप, मैंसेजर, फेसबुक चलाना सिखाया जा सकता है, पर मुझे नहीं। मित्रो! ऐसा नहीं कि मुझमें किसी को चलाने की फितरत नहीं थी। एक समय था कि मैं अपने ऑफिस में हर साहब को ऐसे चलाया करता था कि मत पूछो। एक समय था कि जब मेरा चलाया झूठ ऐसे सिर पर पांव रखे दौड़ता था कि बीसियों के भरे पूरे एचबी वाले सच उसके सामने हांफने लग जाते थे। एक समय था जब मैं हर चालू से चालू आदमी को भी ऐसे चला दिया करता था कि जब वह चलते चलते थक जाता था तो तब जाकर उसे पता चलता था कि उसे मेरे द्वारा चलाया जा चुका है। सच कहूं तो एक समय में मेरी चलाने में इतनी महारत हासिल थी कि…। उस समय तो जो गलती से मेरे सामने भगवान भी आ जाते तो मैं उन्हें भी चला कर ही दम लेता। पर आज पता नहीं क्यों लाख कोशिश करने के बाद भी आज मैं इन दो टके के व्हाट्सएप, मैसेंजर, फेसबुक को चलाने में असहाय सा हो रहा हूं। इनको न चलाने की वजह से आज मैं समाज से इतना कट गया हूं कि…। कई बार मन करता है कि ज्यों आत्महत्या ही कर लूं। इनसे बाहर भी कोई दुनिया है क्या दोस्तो?

अशोक गौतम
ashokgautam001@Ugmail.com
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