हैरानी की बात यह है कि धरना स्थल के आसपास पुलिस थी, लेकिन उसने समय पर हंगामा कर रहे लोगों को नहीं रोका। आरोपों के मुताबिक बात आगे बढ़ गई तो जुलूस में शामिल लोगों और किसानों के बीच झड़प और मारपीट शुरू हो गई। उसे शुरू में ही रोकने के बजाय बाद में पुलिस ने दखल दिया। सवाल है कि क्या वहां तैनात पुलिसकर्मियों और उनके अधिकारियों को दो विरोधी पक्षों के आमने-सामने होने से पैदा होने वाले हालात का अंदाजा नहीं था? जो पुलिस हजारों लोगों के जमावड़े और गतिविधि को नियंत्रित कर सकने की क्षमता रखने का दावा करती है, उसे हंगामा करने वालों को समय पर रोकना जरूरी क्यों नहीं लगा? अब हालत यह है कि उसी घटना के संदर्भ में पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कर भारतीय किसान यूनियन के करीब दो सौ कार्यकर्ताओं को आरोपी बनाया है। दूसरी ओर, किसानों की ओर से भी मामला दर्ज कराने की बात कही गई है। आंदोलन से जुड़े नेताओं का सीधा आरोप है कि भाजपा ने सात महीने से शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे उनके आंदोलन को बाधित करने के मकसद से सुनियोजित साजिश के तहत हंगामा करने की कोशिश की है।
करीब पांच महीने पहले भी गाजीपुर बॉर्डर पर चल रहे आंदोलन के मंच पर हंगामा करने की कोशिश की गई थी। तब पुलिस के हस्तक्षेप के बाद आंदोलन के खत्म होने तक की बात कही गई, लेकिन ग्रामीण इलाकों से किसान फिर से वहां पहुंच गए। दूसरी सीमाओं पर भी छोटे-मोटे हंगामे हुए, लेकिनआंदोलन आमतौर पर शांतिपूर्ण तरीके से जारी रहा। किसानों की मांग पर न सरकार का कोई सकारात्मक रवैया सामने आ रहा है, न किसान पीछे हटने को तैयार हैं। हालांकि इससे पहले दोनों पक्षों के बीच ग्यारह दौर की वार्ता हो चुकी है, लेकिन अब वह भी बंद है। इसके बावजूद किसान जिस तेवर के साथ आंदोलन स्थलों पर टिके हुए हैं, वह सरकार के लिए परेशानी का कारण है। इससे किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की हमति-असहमति हो सकती है, लेकिन उसकी वजह से किसी को हिंसा के लिए उकसाना किस तरह की रणनीति है? हमारा लोकतंत्र किसी को शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन करने का हक देता है। अगर कोई पक्ष उससे सहमति नहीं रखता है तो वह बातचीत का रास्ता अपना सकता है। जरूरी यह भी है कि हंगामे या हिंसा का अंदाजा होने के बावजूद जो पुलिस मूकदर्शक रहती है, अगर वह समय पर सक्रिय हो और नाहक अराजकता फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करे तो हालात को बिगड़ने से पहले संभाला जा सकता है।