स्तनपान के हक में : अब बाजार के हवाले मां का दूध, नैतिकता और मुनाफे से ज्यादा जरूरत की है बात

दूध को बाजार के हवाले करने से रोकना चाहिए। यह हजारों गरीब शिशुओं के स्वास्थ्य का सवाल है।

Update: 2022-07-08 01:37 GMT

बंगलूरू स्थित नियोलैक्टा लाइफ साइंस प्रा. लि. नामक कंपनी द्वारा मां के दूध को पाश्चुरीकृत करके बेचने के मामले में एक साथ कई तरह के मानवीय और नैतिक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। ब्रिटेन के डॉ. माइकल नामैन और अर्थशात्री सुसान न्यूमैन ने दिसंबर, 2020 में इस मामले की छानबीन कर एक आलेख प्रकाशित कराया था, जिसमें बताया गया था कि इस कंपनी ने एनजीओ के माध्यम से गरीब माताओं को लालच देकर दूध बटोरा और उसे डिब्बा बंद कर बाजार में ऊंची कीमत पर बेचना शुरू किया है।


मामले के प्रकाश में आने के बाद 'फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई)' ने कंपनी के लाइसेंस को रद्द कर दिया, क्योंकि मां के दूध का व्यापार गैर कानूनी है। कंपनी ने एफएसएसएआई द्वारा कार्रवाई के बाद भी चालबाजी जारी रखी और ब्रांड नाम बदलते हुए 'नारी क्षीर' नाम से नवंबर, 2021 में आयुष लाइसेंस प्राप्त कर लिया। ब्रेस्ट फीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया की नूपुर बिड़ला ने माताओं से दूध जमा कर, बेचने की अनुमति दिए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया था।

कम अवधि में जन्म लेने वाले बच्चों का जीवन बचाने के लिए दानदाता माताओं के दूध से दुग्ध बैंक बनाकर दूध पिलाने का प्रावधान तो है, मगर गरीब माताओं की मजबूरी का फायदा उठाते हुए थोड़े से पैसे का लालच देकर उनका दूध लेना और उसे बाजार में 4,500 रुपये प्रति 300 मिलीग्राम पर बेचना अपराध की श्रेणी में आता है। मानव दूध बैंकिंग एसोसिएशन के डॉ. सतीश तिवारी ने इसे घिनौना कृत्य बताया है।

यूनिसेफ भी ऐसे कृत्य को अनुचित मानती है और कंबोडिया जैसा गरीब मुल्क भी अमेरिकी कंपनियों के दबाव के बावजूद, अपने यहां ऐसे कृत्य को रोके हुए है। कुछ वर्ष पूर्व जब दुग्ध बैंक की अवधारणा सामने आई थी, तभी आशंका जताई गई थी कि आने वाले दिनों में इसका दुरुपयोग हो सकता है। अमीर महिलाएं अपनी सुंदरता बरकरार रखने के लिए अपने शिशु को अपना दूध न पिलाकर, ऐसी कंपनियों के माध्यम से गरीब माताओं का दूध खरीदेंगी और दूसरों की कीमत पर अपने बच्चे पालेंगी।

मां की कोख उधार लेकर (सेरोगेसी) बच्चा पैदा करने का विकल्प पहले से खुला हुआ है। बाजार ने अब मां की ममता और दूध, दोनों को बिकाऊ बना दिया है। ब्लड बैंकों का यथार्थ हमारे सामने है। ज्यादातर ब्लड बैंक साधन संपन्न लोगों के काम आए हैं, वह भी गरीबों, लाचारों की कीमत पर, जो भूख और गरीबी से तंग आकर मजबूरीवश अपना खून बेचने को बाध्य होते हैं। ऐसे में हमें दुग्ध बैंक की अवधारणा के मानवीय पक्षों पर विचार करना चाहिए, क्योंकि इसी अवधारणा ने नियोलैक्टा जैसी कंपनी को मां का दूध बेचने की इजाजत दी है।

यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि कुपोषित गरीब मांओं को मजबूरीवश दूध बेचना पड़ रहा है और संपन्न घरों की महिलाएं अपने सौंदर्य को बनाए रखने के लिए उनका दूध खरीद रही हैं। हमारे देश की गरीब मांओं का स्वास्थ्य इतना बेहतर नहीं होता कि उन्हें प्रचुर मात्रा में दूध हो। जाहिर है, जब आप उनसे उनका दूध खरीद लेंगे, तो वे अपने शिशुओं का पेट नहीं भर पाएंगी। उनके पास अपने शिशुओं को खिलाने-पिलाने के लिए कोई और विकल्प नहीं होता। इसलिए उनके बच्चे कमजोर होंगे।

दुग्ध बैंक की अवधारणा की वकालत करने वाले आज इसके दुरुपयोग पर खामोश क्यों हैं? मां द्वारा स्तनपान कराने का कोई विकल्प नहीं होता। मांओं के पाश्चुरीकृत दूध में उतने पोषक तत्व नहीं होते, जितने स्तनों से दूध पिलाने पर शिशुओं को मिलता है। मांएं अपने स्तनों से बच्चों को लगाकर जब दूध पिलाती हैं, तब न केवल पोषक तत्वों की भरपाई करती हैं, बल्कि संवेदनात्मक अनुभूति का आदान-प्रदान भी करती हैं। अपनी मां का स्तनपान करने वाले शिशुओं में मां के प्रति जो भाव उत्पन्न होते हैं, वह बाजारू दूध से कतई पैदा नहीं हो सकते। हमें किसी भी कीमत पर गरीब मांओं के दूध को बाजार के हवाले करने से रोकना चाहिए। यह हजारों गरीब शिशुओं के स्वास्थ्य का सवाल है।

सोर्स: अमर उजाला 

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