बच्चों की बुनियाद मजबूत करना है तो घर-स्कूल में अनेक गतिविधियां करें
घर-स्कूल में अनेक गतिविधियां करें
रुक्मिणी बनर्जी का कॉलम:
फरवरी का महीना था। शायद दोपहर के तीन-चार बज रहे थे। गांव के बीच, सरपंचजी के घर के ठीक बाहर, कई टेबल लाइन में रखे थे। हर टेबल के साथ कोई न कोई व्यक्ति था। ये ज्यादातर गांव के ही युवक-युवतियां थे। मेले की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। अब उत्सुकता से सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। यह दृश्य कुछ साल पहले का है। राजस्थान के दौसा जिले के एक गांव का। गांव के इन युवक-युवतियों के साथ मैं भी इंतजार कर रही थी।
यह मेला एक दूसरे किस्म का था। वैसे तो मेले में सभी आ सकते थे लेकिन उसमें प्रतिभागिता मां और बच्चे की जोड़ी ही कर सकती थी। ये बच्चे आने वाले महीनों में स्कूल में पहली कक्षा में दाखिल होने वाले थे। दो दिन से गांव में मेले की खबर फैलाई जा रही थी। सभी को बेसब्री से मेला शुरू होने का इंतजार था। पहली जोड़ी आ पहुंची। मां ने गुलाबी ओढ़नी से मुंह ढक रखा था। उनके साथ एक छोटा लड़का था।
उसने मां की अंगुलियों को कसकर पकड़ रखा था। उन्हें देखते ही सभी के चेहरे पर उत्साह की लहर-सी दौड़ गई। पहले टेबल पर मां और बच्चे को अपनी जानकारी देनी पड़ी– बच्चे का नाम, उम्र, मां का नाम। मशीन से बच्चे का वजन लिया गया। तेरह-चौदह साल के एक लड़के ने इंच-टेप से बच्चे की लंबाई नापी। इन सभी जानकारियों को एक रंग-बिरंगे कार्ड में लिखकर मां के हाथ में थमाया गया।
मां और बेटा अगले टेबल पर पहुंचे। उनके बाद और लोगों ने भी आना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे वातावरण मेले के रूप में बदलता जा रहा था। दूसरे टेबल के पास ज़मीन पर चॉक से बनी कई लाइन दिख रही थीं। उनमें एक सीधी लाइन थी। छोटे लड़के से पूछा गया, 'बेटा, क्या तुम इस लाइन पर चल सकते हो?' बच्चे ने मां की अंगुली कसकर पकड़ ली। मां ने बहला-फुसलाकर बेटे से अंगुली छुड़वाई।
बच्चे ने धीरे-धीरे एक पैर, फिर दूसरा पैर लाइन पर आगे बढ़ाया। सीधी लाइन पर कैसे चलते हैं, उसने कर दिखा दिया। सभी ने तालियां बजाईं। अब लड़के को टेढ़ी-मेढ़ी लाइन पर चलना था। लेकिन बच्चे को उस पर चलने में कोई संकोच नहीं हुआ। फट से उसने यह भी कर डाला। टेबल के पास कुर्सी पर बैठे भैया ने रंग-बिरंगे कार्ड के शारीरिक विकास वाले खाने में शाबाश लिख दिया। मेले में भीड़ बढ़ चुकी थी।
अब बहुत सारी माताएं बच्चों के साथ मेले में आ चुकी थीं। गुलाबी पगड़ी पहने ऊंचे कद के सरपंचजी भी बच्चों के साथ गतिविधियां कर रहे थे। आंगनवाड़ी दीदी और पहली कक्षा की मैडम माताओं के बीच शामिल थीं। देखने से लग रहा था कोई त्योहार मनाया जा रहा है। हर टेबल पर कुछ गतिविधियां हो रही थीं। मां-बेटे की पहली जोड़ी अब चित्र करने की टेबल तक पहुंच गई थी। हर बच्चे और मां को एक कागज, रंग-पेंसिल दिया गया था।
कागज पर किसी चित्र का आउटलाइन बना था। मां-बेटे कागज-पेंसिल लेकर जमीन पर बैठ गए। दोनों रंग भरने में तल्लीन हो गए। और भी बहुत गतिविधियां थीं। एक टेबल पर ढेर सारी सब्जियां रखी थीं। मां और बच्चे उनको छांटकर अलग कर रहे थे- आलू और प्याज़ को अलग करना, भिंडी को लाइन में सजाना था, सबसे लम्बे से छोटे के क्रम में। टमाटर को भी उसी तरह मगर बढ़ते क्रम में लगाना।
उच्च श्रेणी स्कूलों की नर्सरी कक्षाओं में वर्गीकरण की गतिविधियां बाजार से खरीदी कीमती सामग्री से की जाती हैं। लेकिन घरेलू चीजों का इस तरह की गतिविधियों में बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया जा सकता है। पास ही की एक और टेबल पर बहुत सारे पुराने अखबार रखे थे- उनके टुकड़ों को मोड़-मोड़कर नाव या पंखा बनाने में लगे हुए थे मां और बच्चे। विशेषज्ञ कहते हैं कि कागज़ की ऐसी गतिविधियों से फाइन मोटर स्किल का विकास होता है।
तस्वीर को काटकर कई हिस्से बनाए गए थे। मां और बच्चे उन्हें फिर से जोड़ रहे थे। इससे संज्ञानात्मक विकास होता है। आखिरी टेबल तक पहुंचते-पहुंचते मां और बच्चों ने भाषा और गिनने की गतिविधियां भी कर ली थीं। सरपंच जी ने मां को अपनी भाषा में समझाया- 'दो महीने में आपका लड़का पहली कक्षा में जाएगा। ऐसी गतिविधियां घर में भी करते रहिएगा। बच्चा तैयार हो जाएगा पहली कक्षा में आकर अच्छी तरह से पढ़ाई-लिखाई के लिए।'
सच यही है कि स्कूल के लिए तैयार होना केवल अक्षर और अंक पहचानने से नहीं होता है। सर्वांगीण विकास जरूरी है। अगर हमें बच्चों की नींव को मज़बूत करना है तो घर व स्कूल दोनों जगह तरह-तरह की गतिविधियां करना जरूरी है। ऐसे विद्यालय-पूर्व-तैयारी मेले का जिक्र सरकार की निपुण भारत पुस्तिका में भी किया गया है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और हिमाचल जैसे राज्यों में तय हुआ है कि हर गांव में ऐसे मेले होंगे। आप भी अपने यहां कर सकते हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)