अगर हम अंधेरे, नकारात्मकता, भय व संदेह से भरे हैं, तो अनजाने में एक गुफा बन जाते हैं

तीन दिन पहले की बात है। इंदौर में सुबह आठ बजे की एक मीटिंग के लिए जाते हुए मेरी गाड़ी महाराजा यशवंत राव हॉस्पिटल सिग्नल पार करने में चंद सेकंड से चूक गई

Update: 2022-04-09 06:43 GMT
एन. रघुरामन का कॉलम: 
तीन दिन पहले की बात है। इंदौर में सुबह आठ बजे की एक मीटिंग के लिए जाते हुए मेरी गाड़ी महाराजा यशवंत राव हॉस्पिटल सिग्नल पार करने में चंद सेकंड से चूक गई। अकेला इंतजार करता मैं अपना भाग्य कोस रहा था क्योंकि ज्यादातर कारें रेड सिग्नल के बाद भी तेजी से निकल गईं क्योंकि यह सबसे लंबे सिग्नल्स में से है, जहां चार से ज्यादा दिशाओं से गाड़ियां आती हैं और उन्हें पता था कि उन्हें देर तक रुकना पड़ेगा।
मैं परेशान हो गया। अचानक एक मोडिफाइड मारुति वैन MP 09 V 7613 मेरे बगल में आकर रुकी। उसमें स्कूल यूनिफॉर्म पहने चार-पांच साल की उम्र के ठीक 12 बच्चे थे। इंसानों और उनके व्यवहार का आकलन करना मेरा जुनून है। और जब मुझे बच्चों को देखने का मौका मिला, तो मैंने अपनी नजरें उनसे नहीं हटाईं क्योंकि वे मुझे बगीचे में ताजे खिले फूलों सा अहसास दे रहे थे। उन्हें कोई मतलब नहीं था कि उन्हें कौन देख रहा है।
वे अपनी पूरी मासूमियत में मनमौजी जिंदगी जी रहे थे। मेरी सीट ऐसी थी कि वहां से सारे 12 बच्चे दिख रहे थे। लग रहा था कि वे सारे एक ही कक्षा के बच्चे हैं और एक दिन पहले अपने शिक्षक से कुछ सीखा है। पहला बच्चा सीधा खड़ा हो गया। बावजूद इसके कार की छत से उसका सिर नहीं टकराया। अब आप सोच सकते हैं कि वे कितने छोटे होंगे और उन्हें देखना कितना मजेदार होगा। उस छोटी बच्ची ने कुछ कहा, मानो वह कह रही हो, 'गुड मॉर्निंग टीचर' या 'माय नेम इज...सो एंड सो' और बैठ गई।
तुरंत अगले बच्चे ने भी वही दोहराया। उन चंद सेकंड्स में सारे 12 बच्चों ने वही किया, जो पहले बच्चे ने किया था। कुछ ने इसे अपने तरीके से किया और बाकियों से ताली मिली। उनकी बातचीत का लुत्फ़ लेने के बजाय, वो बिना शेव किया और ऐसे ही कपड़े पहना ड्राइवर पीछे मुड़ा और अपनी हाथ-अंगुली के इशारे के साथ कड़क आवाज में उन्हें शांत बैठे रहने के लिए कहा। अचानक ऐसी लगा कि सबमें उदासी छा गई हो। सारे खामोश हो गए। उसकी ड्राइविंग में कुछ गलत नहीं था।
वह सतर्क था और अच्छा ड्राइवर था, जो ट्राफिक नियम मान रहा था। पर उसका व्यवहार खुशी नहीं फैला रहा था और वो भी उन छोटे बच्चों के बीच! यही मेरी चिंता थी। उसके तथाकथित 'दुखी' एक्ट से मुझे एक कहानी याद आ गई। कहानी कुछ ऐसी है। एक दिन सूरज और गुफा में बातचीत छिड़ी। 'अंधेरा' कैसा होता है यह सूर्य की समझ से बाहर था, और ना ही गुफा 'प्रकाश' के बारे में आश्वस्त थी। दोनों ने एक दिन के लिए स्थान बदलने का निर्णय लिया।
गुफा ने पहली बार प्रकाश देखा और सूर्य से बोली 'सचमुच यह अद्भुभत से भी परे है। अब अंदर आओ और देखो कि मैं कहां रहती हूं।' सूर्य गुफा में पहुंचा और बोला, 'मुझे तो यहां कोई अंतर नहीं लगता।' वो इसलिए क्योंकि जब सूर्य नीचे गुफा में गया तो उसके साथ उसकी रोशनी भी थी और गुफा का कोना-कोना जगमगा रहा था।
इसलिए सूरज को कोई अंतर नहीं दिखा। कहानी एक प्रेरक बात से खत्म होती है, 'ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित व्यक्ति को नर्क रूपी अंधेरे में नहीं धकेला जा सकता। प्रकाश रूपी स्वर्ग हमेशा उनके साथ होता है।' मेरा भी मानना है कि अगर हम अंधेरे, नकारात्मकता, भय व संदेह से भरे हैं, तो अनजाने में एक गुफा बन जाते हैं।
फंडा यह है कि यदि आप सूर्य की भांति प्रकाशमान (पढ़े चैतन्य-जागरूक) हैं तो गुफा का अंधेरा मायने नहीं रखता। आप बुरे से बुरे हालात में भी भी कहीं न कहीं से आशीष पा ही लेंगे। यह तभी संभव है जब आप अपने भीतर अपना 'स्वर्ग' (खुशी पढ़ें) लेकर चलें।
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