जाति है तो गिनती भी होगी
आखिर सर्वदलीय बैठक की तारीख का औपचारिक एलान करके बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने साफ कर दिया कि वह जाति जनगणना के सवाल पर पीछे हटने को तैयार नहीं है।
नवभारत टाइम्स: आखिर सर्वदलीय बैठक की तारीख का औपचारिक एलान करके बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने साफ कर दिया कि वह जाति जनगणना के सवाल पर पीछे हटने को तैयार नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह बात पहली बार सितंबर 2021 में तब कही थी जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया था कि वह न तो जाति जनगणना करवाएगी और न ही 2011 की जनगणना के दौरान इकट्ठा किए गए आंकड़े सार्वजनिक करेगी। उसके बाद से बिहार विधानसभा दो प्रस्ताव पारित कर चुकी है, एक बार मुख्यमंत्री सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री से मिल भी चुके हैं। लेकिन केंद्र सरकार का रुख बदलने के कोई संकेत नहीं हैं। यह जरूर माना जाने लगा था कि प्रदेश की गठबंधन सरकार के सबसे बड़े घटक दल बीजेपी की असुविधाजनक स्थिति का ख्याल रखते हुए मुख्यमंत्री शायद इस पर और जोर न दें। मगर ताजा एलान ने साफ कर दिया है कि जाति जनगणना को लेकर दोनों पक्षों में तलवारें खिंचना तय हो चुका है। बहरहाल, हमारे सहयोगी अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने बुधवार को प्रकाशित एक संपादकीय में जाति जनगणना को अव्यावहारिक और अनावश्यक बताते हुए कहा है कि इस पर जोर देने के बजाय राजनीतिक दलों को समकालीन आर्थिक आंकड़ों के अभाव की चिंता करनी चाहिए।
अखबार का कहना है कि इस देश में जाति का सवाल बहुत उलझा हुआ है। साल 2011 में करवाई गई सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में 46 लाख जातियां और उपजातियां सामने आ गईं। टीओआई का संपादकीय यह भी कहता है कि अगर एक बार विभिन्न जातियों और उपजातियों की संख्या के आंकड़े बाहर आ गए तो फिर उस आधार पर अलग-अलग समूहों की तरफ से आरक्षण की मांगें जोर पकड़ने लगेंगी जिनसे निपटना खासा मुश्किल साबित होगा। इस आशंका में सचाई का कुछ अंश हो सकता है कि जाति जनगणना के बाद विभिन्न समुदायों को मिलने वाले आरक्षण प्रतिशत में बदलाव की मांग उठेगी। मगर इस वजह से जाति जनगणना ही न करवाई जाए यह सुझाव बेतुका है। बल्कि, इस वजह से जाति जनगणना की जरूरत और बढ़ जाती है। जाति व्यवस्था को चाहे जितना भी भला-बुरा कहा जाए जाति भारतीय समाज की एक ऐसी हकीकत है जिसे झुठलाकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। देश में लंबे समय से जातियों के आधार पर शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू है। ऐसे में विभिन्न जाति समुदायों की वास्तविक संख्या को लेकर ठोस और प्रामाणिक आंकड़े भी उपलब्ध होने चाहिए। ये आंकड़े जितने सही और सटीक होंगे उन पर आधारित नीतियां भी उतनी ही कारगर होंगी। इसलिए जरूरी है कि जाति की सचाई को दबाकर रखने की मानसिकता से पीछा छुड़ाते हुए हम प्रामाणिक जाति जनगणना करवाने की राह पर आगे बढ़ें।