यदि शादी के लिए किसी को धर्म बदलना पड़ता है तो फिर उसे अंतरधार्मिक विवाह कैसे कहा जा सकता है?

देश में इन दिनों लव जिहाद पर एक बहस छिड़ी हुई है।

Update: 2020-11-09 03:46 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। देश में इन दिनों लव जिहाद पर एक बहस छिड़ी हुई है। बल्लभगढ़ के निकिता हत्याकांड के बाद उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्य तो इसके खिलाफ कानून बनाने की बात कह रहे हैं। इसी कड़ी में पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ का एक निर्णय गौर करने योग्य है, जिसमें उसने धर्म परिवर्तन कर शादी करने वाले एक युगल की सुरक्षा की मांग को अस्वीकार कर दिया। दरअसल एक हिंदू लड़के से शादी के लिए जन्म से मुस्लिम लड़की ने हिंदू धर्म स्वीकार किया था।

सिर्फ विवाह करने के उद्देश्य से किया गया धर्म परिवर्तन स्वीकार्य नहीं

न्यायालय ने अपने फैसले में 2014 के नूरजहां बेगम प्रकरण का उल्लेख करते हुए कहा कि सिर्फ विवाह करने के उद्देश्य से किया गया धर्म परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है। वास्तव में तब नूरजहां मामले के साथ अलग-अलग समय में पांच दंपतियों की ओर से दायर याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायालय ने यह टिप्पणी दी थी। इन सभी जोड़ों ने संरक्षण की मांग की थी। प्रत्येक मामले में लड़के मुस्लिम थे और लड़कियां हिंदू थीं, जिन्होंने विवाह करने के लिए इस्लाम धर्म स्वीकार किया था।

न्यायालय ने कहा था- शादी के लिए धर्म बदलना शून्य माना जाएगा

तब न्यायालय ने आश्चर्य जताते हुए कहा था कि जिस धर्म की जानकारी नहीं है, उसे आखिर स्वीकार कैसे कर लिया गया? उसने स्पष्ट किया कि कोई भी बालिग व्यक्ति आस्था के आधार पर धर्म परिवर्तन कर सकता है, बशर्ते उसका अल्लाह एवं कुरान में विश्वास हो और उसका हृदय परिवर्तन हुआ हो। आस्था और विश्वास में वास्तविक बदलाव के बिना धर्म परिवर्तन मान्य नहीं है। ऐसे में शादी के लिए धर्म बदलना शून्य माना जाएगा।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने देश में सामाजिक मंथन का मार्ग खोला है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का कहना है कि धर्म परिवर्तन का आशय है कि धर्म की प्रत्येक व्यवस्था एवं सिद्धांतों को अपनाया जाए। इस फैसले ने देश में सामाजिक मंथन का एक मार्ग खोला है। इस चर्चा के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं। पहला, किसी धर्म विशेष में आस्था के बगैर क्या उसे स्वीकार करना उचित है? क्या ऐसी स्वीकारोक्ति सामाजिक और र्धािमक रूप से उचित है? दूसरा, जिस विवाह के लिए दो अलग धर्मों को मानने वाले युगल सभी सामाजिक मान्यताओं को तिलांजलि देने के लिए तत्पर होते हैं, वहां धर्म परिवर्तन का प्रश्न क्यों उत्पन्न होता है? आखिर इसका औचित्य क्या है? यूं तो सनातन संस्कृति में धर्म का अर्थ मूलत: दायित्वों का निर्वहन है, परंतु यहां हम धर्म के उस अर्थ की बात कर रहे हैं, जिसकी स्वीकृति सामाजिक एवं संवैधानिक, दोनों ही स्तरों पर है और वह है किसी अलौकिक शक्ति पर विश्वास करना। वह अलौकिक शक्ति तर्क से परे मात्र विश्वास की आधारभूमि पर संपूर्ण विश्व में बड़ी ही दृढ़ता के साथ खड़ी है। इस शक्ति पर व्यक्ति उस सीमा तक विश्वास करता है कि उसे अपने जीवन में घटी हर घटना का कर्ताधर्ता मानता है और यही विश्वास उसे जीवन के तमाम संघर्षों में मजबूती से खड़े रहने का साहस देता है।

धर्म सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है

धर्म सामाजिक व्यवस्था का तो अभिन्न अंग है ही, वह व्यक्ति की मानसिकता को भी किसी हद तक प्रभावित करता है। स्वयं से परे किसी अप्रकट शक्ति पर विश्वास करना व्यक्ति को मानसिक संबल देता है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि जो नास्तिक है या फिर किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करता, वह कमजोर होता है।

प्रत्येक धर्म की अपनी मान्यताएं, विश्वास और आस्था को प्रकट करने के अपने माध्यम होते हैं

प्रत्येक धर्म की अपनी मान्यताएं, विश्वास और आस्था को प्रकट करने के अपने माध्यम होते हैं। ये सभी तत्व जीवन के आरंभ से ही व्यक्ति के भीतर धीरे-धीरे इस तरह रच-बस जाते हैं कि उससे अलग होना सहज नहीं होता। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यकायक व्यक्ति की धार्मिक भावनाएं और उसके मनोभाव कैसे परिवर्तित हो सकते हैं? इससे भी अधिक गंभीर प्रश्न यह है कि अगर ये भावनाएं स्वार्थवश परिवर्तित होती हैं तो क्या ये स्वीकार्य होनी चाहिए?

गैर-मुस्लिम का इस्लाम में विश्वास के बिना शादी के उद्देश्य के लिए धर्मांतरण करना निरर्थक है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस संदर्भ पर प्रकाश डालते हुए 2000 के एक आदेश को भी उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया था कि गैर-मुस्लिम का इस्लाम में विश्वास के बिना शादी के उद्देश्य के लिए धर्मांतरण करना निरर्थक है। कुरान में कहा गया है कि आस्था नहीं रखने वाली महिला से तब तक शादी न करो, जब तक कि वह आस्था नहीं रख ले। साथ ही अपनी लड़कियों की शादी आस्था नहीं रखने वालों से तब तक न करो, जब तक कि वे आस्था रखना शुरू न कर दें। तो क्या ऐसे में बिना आस्था के महज शादी के लिए मुस्लिम धर्म या फिर कोई और धर्म स्वीकार करना किसी भी रूप में उचित है?

यदि शादी के लिए मजहब बदलना पड़ता है तो फिर उसे अंतरधार्मिक विवाह कैसे कह सकते हैं

यदि शादी के लिए मजहब बदलना पड़ता है तो फिर उसे अंतरधार्मिक विवाह कैसे कहा जा सकता है? 2017 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने विवाह के उद्देश्य के लिए धर्म परिवर्तन करने की प्रथा पर रोक लगाने का सुझाव राज्य सरकार को दिया था।

विभिन्न धर्मों को मानने वाले युगल जब विवाह का निर्णय करते हैं तो उसका केंद्र मात्र प्रेम होता है

दूसरा विचारणीर्य बिंदु यह है कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले युगल जब विवाह का निर्णय करते हैं तो उसका केंद्र मात्र प्रेम होता है। ऐसे में क्या अपनी-अपनी आस्थाओं को बनाए रखते हुए प्रेम जीवित नहीं रह सकता? प्रेम विश्वास, त्याग और समर्पण पर टिका है। सिर्फ विवाह बंधन में बंधने के लिए अपनी आस्था को छोड़ देना स्वयं को आहत करने जैसा है। प्रेम तभी चिरस्थायी रहता है, जब भावनात्मक दबाव बनाकर उसके वास्तविक स्वरूप को परिवर्तित करने का प्रयास नहीं किया जाए। अगर ऐसा किया जाता है तो प्रेम का संकुचित दायरा व्यक्ति के अस्तित्व को खत्म कर देता है और स्वयं को खोकर कोई भी रिश्ता बहुत लंबे समय तक कायम नहीं रह सकता।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न तो प्रेम वर्जित है और न ही प्रेम विवाह

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न तो प्रेम वर्जित है और न ही प्रेम विवाह। यही कारण है कि भारत में विशेष विवाह अधिनियम 1954 अलग-अलग धर्मों को मानने वाले युगल को अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं को बनाए रखते हुए विवाह की अनुमति देता है। तो फिर ऐसे में बिना आस्था के सिर्फ शादी करने के लिए धर्मांतरण की आवश्यकता क्यों?

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