हास्य-व्यंग्य: सम्मान बांटने का नया धंधा, विकास की नई राह खुलती दिखी

वे सम्मान बांटने का धंधा करते हैं।

Update: 2021-09-26 09:57 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| पूजा  सिंह| वे सम्मान बांटने का धंधा करते हैं। कोरोना काल में तो उनके धंधे ने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि उन्होंने हर दिन और हर किसी को आनलाइन सम्मान बांटने का ठेका ले लिया। हर दिन सम्म्मान बांटने से भी जब उन्हें संतुष्टि नहीं मिली तो उन्होंने सुबह-दोपहर-शाम सम्मान बांटने शुरू कर दिए। जैसे डाक्टर तबियत ठीक रखने के लिए सुबह-दोपहर-शाम दवाई खाने की हिदायत देता है, ठीक उसी तरह उन्होंने नियम से यह दवाई खाई और खिलाई। अब उनके पास सम्मान प्राप्त करने के लिए स्वयं ही आवेदन आने लगे।

स्थिति यह हो गई कि भाई लोग पहली कविता या कहानी लिखने के बाद ही सम्मान प्राप्त करने के लिए आवेदन करने लगे। हालांकि लिखने वालों को स्वयं भी यह पता नहीं चल रहा था कि यह वास्तव में कविता/कहानी ही है या कुछ और। एक-दो लोगों ने दबे स्वर में कहा कि यह तो कच्चा माल है, पर सम्मान बांटने वाले भी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने 'कच्चा माल सम्मान' शीर्षक से एक नया पुरस्कार शुरू कर दिया।

अब सभी की अंगुलियां घी में थीं, पर घी नकली था। इस दौर में असली से ज्यादा नकली ही चलता है तो सभी को असीम संतुष्टि प्राप्त हो रही थी। अब उनके बढ़ते महत्व को देखकर अन्य लोगों को जलन होने लगी। अन्य लोगों ने सोचा कि क्यों न हम भी सम्मान बांटने का धंधा शुरू कर दें। इस तरह चारों ओर आनलाइन सम्मान बांटने का धंधा शुरू हो गया। हर तरफ सम्मान ही सम्मान बंटने शुरू हो गए। फेसबुक पर सम्मान की खबरों ने अन्य खबरों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। एक वक्त ऐसा भी आया जब सम्मान बांटने वाले ज्यादा हो गए और सम्मान ग्रहण वाले कम रह गए, लेकिन सम्मान बांटने वालों को तब भी शर्म नहीं आई।

मगर कुछ बुद्धिजीवियों को जरूर शर्म आ गई। यह शर्म भी बड़ी अजीब चीज है। जहां आनी चाहिए, वहां नहीं आती है और जहां नहीं आनी चाहिए वहां आ जाती है। बुद्धिजीवी बोले-'यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि कूड़ा साहित्य लिखने वाले साहित्यकारों को पुरस्कृत किया जा रहा है।' जैसे ही सम्मान बांटने वालों ने 'कूड़ा' शब्द सुना, वैसे ही उनके दिमाग में बिजली प्रवाहित हुई। उन्होंने तुरंत एक नया पुरस्कार शुरू कर दिया। नाम रखा गया-'कूड़ा सम्मान'। यह देखकर बुद्धिजीवी चुप हो गए। अब उनके पास आलोचना का कोई आधार नहीं था। 'कूड़ा सम्मान' की घोषणा होते ही कूड़ा उठाने वालों के कान खड़े हो गए।

अब सम्मान बांटने वालों के पास पुरस्कार के लिए कूड़ा उठाने वाले लोगों की अर्जिया आनी शुरू हो गईं। कूड़ा उठाने वाले गर्व से चौड़े हुए जा रहे थे कि उन्हें भी पुरस्कार के लायक समझा गया है, लेकिन सम्मान बांटने वालों ने अपना सिर पीट लिया। खैर कूड़ा उठाने वालों को समझाने की कोशिश की गई कि यह पुरस्कार लेखकों के लिए है, लेकिन वे समझने के लिए तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि यह पुरस्कार उन्हें ही दिया जाना चाहिए। आखिरकार तय किया गया जो भी कूड़ा उठाने वाला लेखकों के घर से सबसे ज्यादा कूड़ा साहित्य उठाएगा, उसे यह पुरस्कार दिया जाएगा। यह घोषणा होते ही लेखकों के घर कूड़ा उठाने वालों की लाइन लग गई। लेखक अपना साहित्य कूड़ा उठाने वालों को नहीं दे रहे थे। दूसरी तरफ कूड़ा उठाने वाले लेखकों से लड़ रह थे कि उन्हें उनके घर का कूड़ा उठाना है। इस बात पर अभी तक विवाद बना हुआ है। इसलिए 'कूड़ा सम्मान' किसी को नहीं दिया गया है।

अब तो सम्मान बांटने वाले सम्मान देने के बदले 'सम्मान-शुल्क' भी मांगने लगे हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि 'उसे सम्मान क्यों दिया' और 'उसे सम्मान क्यों नहीं दिया' जैसे झगड़े खत्म हो गए हैं। सीधा सा फंडा है जो 'सम्मान-शुल्क' देगा, वह सम्मान लेगा। यानी इस हाथ दे, उस हाथ ले। इस सुविधा से यह धंधा दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। लेखकों के इस वैभव को देखकर अन्य लोगों ने भी लिखना शुरू कर दिया है। जब से सम्मान देना और लेना अर्थशास्त्र से जुड़ गया है, तब से विकास की नई राह खुलती दिखाई दे रही है।



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