कोरोना काल में कितनी सफल रही जन आरोग्य योजना
23 सितंबर को देश में अति महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तीन साल पूरे हो रहे हैं
23 सितंबर को देश में अति महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तीन साल पूरे हो रहे हैं. आयुष्मान भारत के तहत, सतत विकास लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए 2018 में आज ही के दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने झारखंड में इस योजना की शुरुआत की थी. आजाद भारत में पहली बार स्वास्थ्य बीमा की एक विशालकाय योजना लागू की गई, जिसमें गरीब परिवारों को प्रति परिवार 5 लाख रुपए तक के इलाज के लिए सहायता दिया जाना तय किया गया. देश के 10.74 करोड़ से भी अधिक गरीब और वंचित परिवारों इस योजना के दायरे में रखे गए हैं. यह कुल आबादी का तकरीबन 40 प्रतिशत हिस्सा है.
अजीब इत्तेफाक है कि इस योजना के लागू होने के तकरीबन डेढ़ साल बाद जनवरी 2020 में देश में कोविड-19 की दस्तक हुई. ठीक 100 साल बाद एक भयंकर महामारी हमें लील लेने को आतुर थी. उसके बाद, देश ही नहीं दुनिया ने जो कुछ भी सहा है, उससे हम सभी वाकिफ हैं.
कोविड-19 के कहर, उससे उपजे हालातों और नाजुक वक्त में तकरीबन चरमरा गई स्वास्थ्य सेवाओं ने एक बार यह सोचने को मजबूर किया है, कि हमारे देश का स्वास्थ्य तंत्र कैसा होना चाहिए? दूसरी लहर के बीत जाने के बाद, अब यह सवाल फिर सामने आ गया है कि क्या बीमा आधारित व्यवस्थाओं से लोगों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाएंगी, क्या इससे आयुष्मान भारत बनेगा या फिर इस पर पुर्नविचार करने की जरुरत होगी. सबसे बड़ा सवाल यह है कि स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को हम कितना सार्वजनिक क्षेत्रों में रखेंगे और उनमें निजी संस्थाओं की कितनी भूमिका होगी.
बड़ी तस्वीर का छोटा सा हिस्सा है आयुष्मान योजना का विश्लेषण
वैसे, केवल कोविड-19 के संदर्भ में आयुष्मान योजना का विश्लेषण किया जाना एक बड़ी तस्वीर का छोटा सा हिस्सा है, लेकिन यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यही हिस्सा सबसे घातक साबित हुआ है, जहां देश ने हजारों लोगों की मौत को अपनी आंखों से देखा है, बेबसी को देखा है, असफल होती व्यवस्थाओं को देखा है और यह समझ आया है कि इस देश में जहां कि तकरीबन 80 करोड़ लोग सस्ते अनाज से अपनी भूख को शांत कर रहे हैं, वहां पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थाओं को सरकार को अपने ही हाथ में क्यों रखना चाहिए.
यदि इस बात का ठीक—ठीक अध्ययन किया जाए कि आयुष्मान कार्ड कोविड-19 महामारी में लोगों को सस्ता और बेहतर इलाज देने में कितना कामयाब रहा, तो इसके नतीजे बहुत बेहतर नहीं आएंगे. कोविड-19 में आयुष्मान योजना के कुप्रंबधन और निर्णयों में हुई देरी से इसकी रिपोर्ट बहुत अच्छी नहीं आ रही है.
ऐसे कई वीडियो सोशल मीडिया पर अब भी मिल जाएंगे जहां कि कार्ड होने के बावजूद लोगों को उसका लाभ देने से साफतौर पर मना कर दिया गया. ऐसे कई लोग हैं जो पात्र होने के बावजूद इस कार्ड से वंचित हैं, ऐसे कई परिवार जानकारी में आए हैं जिनके दो भाईयों के पास आयुष्मान कार्ड है, लेकिन एक भाई का आवेदन करने के बाद भी कार्ड नहीं बन पाया, और उसको इलाज में डेढ़ लाख रुपए खर्च करने पड़े.
3.27 लाख लोगों का हुआ इस योजना से इलाज
आयुष्मान योजना के अंतर्गत कोविड-19 का इलाज कराने वाले मरीजों की संख्या देखें तो हम पाएंगे कि वित्तीय वर्ष 2020—21 में देश में तकरीबन 3 लाख 27 हजार मरीजों का इलाज इस योजना में हुआ. दिलचस्प है कि इसमें बड़ी संख्या दक्षिण भारत के राज्यों की है. आंध्रप्रदेश में 87 हजार, कर्नाटक में 93 हजार, महाराष्ट्र में 89 हजार, केरल में 25 हजार और छत्तीसगढ़ में 20 हजार मरीजों को इलाज मिला. यानी तकरीबन 3 लाख 14 हजार मरीज तो इन पांच राज्यों में ही आ गए. यह लोकसभा में प्रस्तुत किए गए आंकड़े हैं.
एक आरटीआई के जवाब में यह बताया गया है कि अप्रैल 20 से लेकर मई 21 तक साढ़े छह लाख मरीजों का इलाज हुआ. आपको बता दें कि अप्रैल और मई के महीने में ही कोविड की दूसरी लहर का सबसे ज्यादा असर रहा. इस वक्त तक भी जब देश में कोविड केस की संख्या पैने तीन करोड़ तक पहुंच गई थी, उस वक्त तक भी क्या छह साढ़े छह लाख लोगों को आयुष्मान का फायदा पहुंचाने पर हम संतुष्ट हो सकते हैं. इन आंकड़ों के मददेनजर यह भी देखना चाहिए कि वह चंद राज्य आखिर किस मॉडल के जरिए ज्यादा लोगों को इस योजना के दायरे में ला पाने में सक्षम रहे.
अब हमें यह भी तय करना होगा कि हमें स्वास्थ्य बीमा चाहिए या अच्छी और सस्ती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए. आशंकाएं इस बात पर भी जताई जा रही हैं कि कहीं स्वास्थ्य बीमा का हवाला देकर धीरे—धीरे गरीब और मजबूर लाचार लोगों के हाथ से वह अस्पताल तो नहीं छिन जाएंगे जहां पर वह किसी भी तरह सस्ता इलाज तो करवा लेते हैं. सरकार जो पैसा बीमा के जरिए से निजी और सार्वजनिक सेवाओं को सौंपने जा रही है, क्या उससे उसी तरह के तंत्र को और मजबूत नहीं किया जा सकता है, जो सालों साल से लोगों की सेवा कर रहा है, लेकिन निजी सेक्टर के आने के बाद से उसकी नींव लगातार धसक रही है.
गरीब वर्ग को ज्यादा है अपने इलाज की चिंता
जाहिर है यह चिंता उस गरीब वर्ग को ज्यादा है, जो पांच दस रुपए की पर्ची कटवाकर अस्पतालों में इलाज ले लेता है, सरकार को उस गरीब की इस चिंता को और खासकर कोविड-19 का कहर देखने के बाद तो और भी अच्छे से दूर करनी चाहिए. जिस तरह से इतनी बड़ी आबादी वाले देश का टीकाकरण अभियान चलाया सफलतापूर्वक संचालित किया जा रहा है और फ्रंट लाइन वर्कर्स अपनी क्षमताओं से कहीं आगे जाकर, ओवर टाइम करके, नदी पहाड़ लांघकर देश के कोने—कोने में लोगों को इस जानलेवा महामारी से सुरक्षित करने में लगे हैं.
वहां यह बात भी समझ आती है कि यह हो पाया है तो इसलिए क्योंकि अब तक भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र संकटों के बावजूद बचा हुआ है, सोचिए, यह न होता तो क्या होता. इसने अपने महत्व को एक बार फिर पूरे जोर से भारत के भाल पर लिख दिया है. जरुरत इस बात की है कि इसे और मजबूत किया जाए, बीमा से ज्यादा सेवाओं को मजबूत किया जाए. उन सेवाओं को जो इलाज के बदले लूट नहीं, बल्कि वाकई भारत को आयुष्मान भव: का जज्बा रखती है और जिसके बारे में आयुष्मान भारत के पहले हिस्से में कहा भी गया है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.