जजों की नियुक्ति कैसे हो
सुप्रीम कोर्ट कलीजियम की ओर से सोमवार को एक संयुक्त बयान जारी कर बताया गया कि नियुक्ति प्रक्रिया आगे बढ़ाने के तरीके पर दो जजों ने आपत्ति जाहिर की थी।
नवभारतटाइम्स: सुप्रीम कोर्ट कलीजियम की ओर से सोमवार को एक संयुक्त बयान जारी कर बताया गया कि नियुक्ति प्रक्रिया आगे बढ़ाने के तरीके पर दो जजों ने आपत्ति जाहिर की थी। यह पहला मौका है जब सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम की तरफ से ऐसा कोई स्पष्टीकरण जारी किया गया है। जजों की नियुक्ति के तरीके को लेकर सुप्रीम कोर्ट कलीजियम में मतभेद की बात पहली नजर में चौंकाने वाली भले लगे, इसे सार्वजनिक करने का फैसला सराहनीय है। खासकर इसलिए भी क्योंकि जजों की नियुक्ति के कलीजियम सिस्टम से जुड़े पहलू आम तौर पर सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनते।
उदाहरण के लिए, इसी खुलासे को लिया जाए कि संभावित प्रत्याशियों के मेरिट का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने के मकसद से 26 सितंबर की कलीजियम बैठक में पहली बार उनके फैसलों को वितरित करने की प्रक्रिया अपनाई गई। यह खुलासा बहुत महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य है। इस तरह के वस्तुनिष्ठ पैमानों को जजों की चयन प्रक्रिया का नियमित हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण सूचना का उल्लेख संयुक्त बयान में लगभग चलताऊ ढंग से किया गया है। इस बारे में विस्तार से जानकारी नहीं दी गई है। यह नहीं बताया गया है कि ऐसे और कौन से पैमाने अपनाए गए हैं या अपनाए जाने की प्रक्रिया में हैं।
यह सवाल भी सहज ही मन में आता है कि प्रत्याशी जजों के पहले दिए गए फैसलों पर विचार करने का यह बुनियादी पैमाना अब तक क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा रहा था? जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर कलीजियम के सदस्यों में मतभेद होना भी एक अच्छी बात है। इससे यह बात रेखांकित होती है कि इस प्रक्रिया का बहुत कम हिस्सा लिखित रूप में नियमबद्ध है। ध्यान रहे, 2015 में नैशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमिशन को संविधान पीठ द्वारा खारिज किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से नए मेमोरेंडम ऑफ प्रसीजर (एमओपी) को अंतिम रूप देने को कहा था। एमओपी से पारदर्शिता का आग्रह बढ़ता तो नियुक्ति प्रक्रिया में और सुधार की उम्मीद बढ़ती। मगर वह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ी। फिर भी सुप्रीम कोर्ट कलीजियम अपनी ओर से इस प्रक्रिया को बेहतर बनाने की कोशिश तो कर ही सकता है। ताजा खुलासा संकेत है कि धीमी रफ्तार से ही सही, लेकिन ये कोशिशें चल रही हैं।
निश्चित रूप से वरिष्ठता और फैसलों की संख्या जैसे कारकों के बजाय गुणवत्ता को अहमियत देना कलीजियम की विश्वसनीयता बढ़ाता है। लेकिन यह सवाल तो फिर भी बनता है कि क्या नियमबद्ध हुए बगैर इस तरह की पहल टिकाऊ साबित होगी? दूसरी बात यह कि फैसलों पर विचार करने का यह पैमाना उस स्थिति में कैसे लागू होगा जब कोई नामी और प्रतिष्ठित वकील जज बनना चाहेगा और उसका नाम कलीजियम के सामने आएगा? उसके लिए किस तरह के पैमाने अपनाए जाएंगे? कलीजियम को इन पहलुओं पर भी विचार करना चाहिए।