विदेश में किसी हिन्दुस्तानी से मिलेंगे तो वो प्रांतीय भाषा से पहले हिंदी में बात करेगा. देश की सबसे बड़ी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री हिंदी की है. इसमें बॉलीवुड का भी बड़ा हाथ है कि हिंदी ने लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई है. हिंदी ने यह जगह लड़ के नहीं बल्कि लोगों की पसंद बनके ली है. इसलिए हिंदी एक सॉफ्ट पावर की तरह है जो जीवंत है और वक़्त के साथ आधुनिक शब्दों को भी अपनी भाषा में जगह देती है. यानि हिंदी में भी बहुत विभिन्नताएं हैं.
हिंदी स्थानीय बोलियों को जोड़ने का काम करती है
स्थानीय बोलियों से हिंदी में रस आता है. यानि मिथलांचल की हिंदी और अवधी हिंदी में फर्क है. पश्चिम उत्तर प्रदेश की हिंदी अलग हो जाएगी. यानि हिंदी उत्तर भारत में तमाम बोलियों को जोड़ने का काम भी करती है. हिंदी का विस्तार पूर्व में भी हुआ है. अरुणाचल प्रदेश में लोग शुद्ध हिंदी बोलते हैं. हिंदी के कई प्रकार हैं. मुम्बइया हिंदी, नागपुरी हिंदी, हैदराबादी हिंदी, हरियाणवी हिंदी इसके कुछ उदाहरण हैं. कई जानकार कहेंगे कि ये बोलियां हैं और इनका अस्तित्व अलग है. लेकिन इनको देखने का एक अलग नज़रिया हो सकता है और वो ये कि हिंदी इनको जोड़ती है.
देश में राज्यों की सीमा भाषा के अनुसार बांटी गयी है
चीनी, रूसी, जर्मन और फ्रेंच की तरह हिंदी के सामने बड़ी चुनौतियां रही हैं. हिंदी पहली ऐसी भाषा रही जिसको प्रांतीय राजनीति का खामियाज़ा भुगतना पड़ा. देश में राज्यों की सीमा भाषा के अनुसार बांटी गयी और भाषा से जुड़ी राजनीति ने अपने पांव धीरे-धीरे मज़बूत किये. यानि तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ बाकायदा आंदोलन हुआ. लोगों ने इसे राष्ट्रीय नवनिर्माण की नज़र के बजाय हिंदी साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की नज़र से देखा. इसलिए हिंदी बन पायी.
किसी भी भाषा को सर्वमान्य बनाने के लिए इन तीन चीजों पर काम करना बेहद ज़रूरी
किसी भी भाषा को देश की सर्वमान्य भाषा बनने के लिए तीन चीज़ें चाहिए होती हैं. मैं प्रोफेसर जीत सिंह ओबेरॉय को कोट करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में सोशियोलॉजी पढ़ाई थी. उनका कहना था की किसी भी भाषा को सर्वमान्य बनने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है. पहली की उस भाषा में देश में गणित और साइंस पढ़ाई जाए. यानि साधारण गणित से लेकर देश के परमाणु बम के कोड भी उसी भाषा में हों. उदाहरण के तौर पर रूस के स्पेसशिप में गाइड बुक रूसी भाषा में ही होती है.
दूसरा देश में प्राथमिक और उच्च शिक्षा केवल उसी भाषा में हो. यानि बच्चे फ्रांस में बचपन से लेकर पीएचडी करने तक चीज़ें फ्रेंच में समझते हैं. चीन में मैंडरिन और जर्मनी में जर्मन में. अगर इन देशों में पढ़ना है तो सीखनी होगी इस देश की भाषा. भाषा संस्कृति की नींव रखती है और उससे राष्ट्रीय चरित्र बनता है. यानि एक राष्ट्रीय चरित्र. और आखिर में राजकाज की भी वही भाषा होनी चाहिए. हिन्दुस्तान में राजकाज की कई भाषाएं हैं. यानि आंध्र प्रदेश कैडर को हिंदी तेलुगु और अंग्रेज़ी तीनों सीखनी पड़ेगी. इसलिए हिंदी को राष्ट्र भाषा और राज भाषा के पचड़े में नहीं फंसना चाहिए, क्योंकि वो अब हो नहीं सकता है.
हिंदी की राजनीति से देश बंट सकता है. हिंदी भारत की सॉफ्ट पावर की तरह है. इसे कोई छोटा बड़ा नहीं कर सकता है. इसका अस्तित्व असीम है. इसलिए बहस हिंदी के विस्तार पर नहीं भाषा पर होनी चाहिए. साहित्य पर होना चाहिए. उसकी पहुंच पर होनी चाहिए. हिंदी जीवंत है और उसको मेमोरियल की तरह नहीं देखा जाना चाहिए.