संकोच : लेखिका नहीं, कामकाजी औरत की पहचान चाहिए, पर काम ढूंढना ही आज की बड़ी समस्या
मुझसे पूछें, तो लेखिका के बजाय मैं कामकाज करने वाली औरत के रूप में पहचाना जाना पसंद करूंगी
सामान्य पढ़ाई-लिखाई के बल पर मैं कुछ लिख जरूर लेती हूं, लेकिन अपने को लेखिका मानने में मुझे संकोच होता है। इसके बावजूद अपनी लिखी कुछ किताबों के कारण समाज का एक हिस्सा मुझे लेखिका मानता है, तो यह मेरा सौभाग्य ही है। एक महान व्यक्ति का सान्निध्य मुझे मिला था, जिस कारण आज मैं इस मुकाम पर पहुंच पाई हूं। वह महान व्यक्ति थे उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के नाती और अब स्वर्गीय प्रबोध कुमार।
संयोग से मैं गुड़गांव में उन्हीं के घर पर काम करने के लिए गई थी। एक कामवाली महिला का लेखिका के तौर पर उभरना आश्चर्यजनक ही था। लेकिन अब कभी-कभी मुझे लगता है कि लेखिका होने के बजाय कामवाली औरत बने रहना ही शायद मेरे लिए ज्यादा सुविधानजक होता। क्योंकि मेरी जो स्थिति है, उसमें मान-सम्मान, इज्जत और आदर की तुलना में कामकाज और रोजगार मेरे लिए ज्यादा आवश्यक है।
सम्मान और समादर से पेट की भूख तो नहीं मिटती, उसके लिए पैसे चाहिए। और अपनी शिक्षा और योग्यता के अनुरूप काम ढूंढना ही मेरे लिए आज बड़ी समस्या है। जिससे भी मैं अपने काम के बारे में कहती हूं, वह दस बार सोचने लगता है। दरअसल इसमें लोगों का भी कोई दोष नहीं है। वे समझ बैठते हैं कि मेरी जैसी लेखिका को कामकाज की भला क्या जरूरत है! इस दृष्टि से मेरा लेखिका होना ही मेरे रोजगार में बाधक बन गया है। मेरी बात सुनते ही लोग कहने लगते हैं, 'आपको मैं भला क्या काम दूं?
आप लिखती हैं, एक लेखिका के रूप में आपकी पहचान है।' मेरे काम मांगने पर सामने वाला जिस तरह हैरान हो जाता है, उतनी ही चकित मैं भी उनके व्यवहार और उत्तर से होती हूं कि यह भला कैसी सोच है! मेरी पहचान है, तो क्या मुझे काम की जरूरत नहीं है? क्या लेखकों के लिए रोजगार कोई मुद्दा नहीं है? क्या मुझे जीवन-यापन के लिए रुपये-पैसों की आवश्यकता नहीं है? फिर तो मुझे जिंदा भी नहीं रहना चाहिए। लोगों की बातें सुन-सुनकर मैं कई बार अपने बारे में सोचने लगती हूं।
अपनी बात कहूं, तो मेरी स्थिति कभी अच्छी नहीं रही। मैंने अपनी मां से सुना है कि जब मैं बच्ची थी, तब बहुत रोती थी। मेरी रुलाई से परेशान-नाराज होकर पिता ने एक दिन मुझे एक पलंग से दूसरे पलंग पर फेंक दिया था, जिससे मुझे चोट लगी थी और खून बहने लगा था। मेरी हालत देखकर मां रोते हुए मुझे डॉक्टर के पास ले गई थी। आज भी उस घटना के बारे में सोचती हूं, तो मन में सवाल उठता है कि जब मैं बहुत छोटी थी, तब पिता ने गुस्से में मुझे क्यों फेंक दिया था?
हमेशा रोती थी, इसलिए? या बेटी और बेटे के बाद मेरे पैदा होने के कारण पिता की नजरों में मैं अवांछित थी? हमारे समाज में एक से ज्यादा बेटियां पैदा होना हमेशा ही दुख और नफरत का कारण बनता है। मुझे फेंके जाने की वह घटना जम्मू-कश्मीर की थी, जहां मेरे पिता सेना में कार्यरत थे। मां बताती थी कि हमारे घर के पास ही गहरी खाई थी। पिता अगर ज्यादा जोर से मुझे फेंकते, तो शायद मैं खाई में जाकर गिरती, जहां से जिंदा लौटना मेरे लिए संभव न होता। उससे मैं उन समस्याओं से बच जाती, जिनका सामना मुझे बाद में करना पड़ा।
हालांकि मैं कहूंगी कि प्रबोध कुमार ने, जिन्हें मैं तातुष कहती थी, मेरी जिंदगी बदल दी। वर्ष 1999 में मैं उनके घर पर काम करने गई थी। घर का काम करने के दौरान किताबों के प्रति मेरी दिलचस्पी देखकर उन्होंने मुझे कलम थमा दी थी। उनके प्रोत्साहन से मैंने पहली बार जो कुछ लिखा, वह आलो-आंधारी शीर्षक से पुस्तक के रूप में छपी। तब से लेकर 2013-14 तक मेरा जीवन ठीक ही चल रहा था। किताबों से जो आय हुई, उससे बच्चों की पढ़ाई चली। बतौर लेखिका मुझे देश-विदेश घूमने का सुयोग भी मिला।
पश्चिम बंगाल के हालिशहर में मेरा घर भी बन गया था। लेकिन मेरे बच्चे गुड़गांव में तातुष के घर को ही अपना घर समझते थे। मेरी बेटी तो उन्हीं के स्नेह-सान्निध्य में बड़ी हुई है। इस कारण गुड़गांव छोड़कर हालिशहर लौटना बहुत आसान नहीं था।
गुड़गांव में मैंने जीवन की जैसी शुरुआत की थी, अपने गृहराज्य में अपने जीवन की वैसी ही शुरुआत मुझे एक बार फिर करनी पड़ी। वहां नौकरी मिलना आसान नहीं था।
फिर भी हिंदी की एक लेखिका के सहयोग से एक एनजीओ में मुझे काम मिला। लोकल ट्रेन में हालिशहर से कोलकाता के सफर में आने-जाने में चार घंटे खर्च होते थे। बचपन से ही अभावों में पली-बढ़ी मैं मुश्किलों से नहीं डरती। लेकिन तीन साल बाद एनजीओ के बंद होने के बाद मैं फिर से सड़क पर आ गई। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं। लेकिन नियति एक बार मुझे गुड़गांव ले आई, जहां कैंसर से पीड़ित मेरे भाई अस्पताल में थे। उनसे आखिरी बार मिलने के लिए गुड़गांव आई, पर उसी रात वह हम सबसे बिछड़ गए।
कोरोना के बीच गुड़गांव में एक बार फिर अपने जीवन की शुरुआत करनी पड़ी। हालांकि शुक्र है कि अब बच्चे मेरी जिम्मेदारी नहीं रहे। लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने के लिए मुझे कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। मुझे अपने जीवन में जिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ रहा है, देश-दुनिया के असंख्य लोग इस स्थिति से गुजरते हैं। मैं चूंकि कुछ लिख-पढ़ लेती हूं, इसलिए अपने सुख-दुख दर्ज कर लेने में सक्षम हूं। पर अजीब स्थिति है कि जो समाज मुझे लेखिका के तौर पर सम्मान देता है, वह मुझे कोई काम नहीं देना चाहता। मुझसे पूछें, तो लेखिका के बजाय मैं कामकाज करने वाली औरत के रूप में पहचाना जाना पसंद करूंगी
सोर्स: अमर उजाला