कानून के हाथ
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पुलिस महकमे के उच्च पद पर रहे एक अफसर पर पहले तो भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगता है, फिर वह अधिकारी जांच और मुकदमे से बचने के लिए भागा फिरता है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि पुलिस महकमे के उच्च पद पर रहे एक अफसर पर पहले तो भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगता है, फिर वह अधिकारी जांच और मुकदमे से बचने के लिए भागा फिरता है। खासकर यह बात ज्यादा अजीब इसलिए हो जाती है कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों के संदर्भ में कानूनी-प्रक्रिया का सामना करने के बजाय उससे बचने की हर संभव कोशिश करता है। गौरतलब है कि करीब चार महीने पहले मुंबई के मरीन ड्राइव पुलिस स्टेशन ने वहां के पूर्व पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह सहित पांच पुलिसकर्मियों और दो अन्य लोगों के खिलाफ एक भवन निर्माता से पंद्रह करोड़ रुपए मांगने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया था।
इसमें आरोपियों के बारे में यह कहा गया था कि सबने एक-दूसरे की मिलीभगत से शिकायतकर्ता के होटल और शराबखाने के खिलाफ कार्रवाई का भय दिखा कर लगभग बारह लाख रुपए की उगाही की थी। जब उनके खिलाफ कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत हुई, तो परमबीर सिंह फरार चल रहे थे और मुंबई की एक अदालत को उन्हें भगोड़ा घोषित करना पड़ा था। इससे पहले उन्होंने महाराष्ट्र के तत्कालीन गृहमंत्री पर सौ करोड़ रुपए वसूली का आरोप लगाया था।
अब सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद वे सामने आए। जांच में शामिल होने और सहयोग देने के मकसद से वे मुंबई भी पहुंचे। हालांकि कोर्ट ने उन्हें फिलहाल गिरफ्तारी से राहत दी है, मगर अफसोसनाक यह है कि इतने उच्च पद पर रहे होने के बावजूद परमबीर सिंह ने अपने खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद मामले की जांच में सहयोग देने के बजाय एक आम अपराधी की तरह छिपना जरूरी समझा।
उन्होंने मामले की जांच और बाकी कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के सिलसिले में खुद पर आने वाली आंच को लेकर यहां तक कहा कि उन्हें मुंबई पुलिस पर भरोसा नहीं है, इसलिए उनके खिलाफ चल रही सभी जांचें महाराष्ट्र से बाहर किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराई जाएं। यह बात कहते हुए उन्हें शायद याद नहीं रहा कि वे खुद राज्य में तीस साल से ज्यादा की सेवा दे चुके हैं और पुलिस आयुक्त जैसे उच्च पद पर भी रहे। सवाल है कि जब वे अपने खिलाफ जांच के संदर्भ में मुंबई पुलिस पर भरोसा करने से इनकार कर रहे थे, तब उसकी वजह क्या थी! वे ऐसा क्यों मानते हैं कि समूचा पुलिस महकमा उन पर लगे आरोपों के दायरे में ही काम करता है?
स्थिति तब और अजीब हो जाती है, जब भ्रष्टाचार के आरोपों के कठघरे में खड़ा होने के बाद अधिकारी पद पर रहा कोई व्यक्ति समूचे पुलिस महकमे पर ही भरोसा करने से इनकार करता है। जबकि बेहतर यह होता कि अगर परमबीर सिंह खुद को सही मानते हैं तो उन्हें जांच में सहयोग करना चाहिए था। एक अदालत से भगोड़ा घोषित होने और अब सुप्रीम कोर्ट से फटकार खाने के बाद अगर उन्हें आखिरकार जांच में शामिल होना पड़ा, तो इसे कैसे देखा जाएगा? एक पक्ष यह भी है कि अगर वे कुछ समय तक खुद हाजिर नहीं होते तो कानूनी प्रक्रिया के तहत उनकी समूची संपत्ति जब्त होने का खतरा था। पुलिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगना कोई नई बात नहीं है और गाहे-बगाहे ऐसे मामले सामने आते रहे हैं, लेकिन अगर उच्च पद पर रहा अधिकारी भी इस स्तर की गतिविधियों में संलिप्त पाया जाए, तो यह समूचे महकमे की छवि को धूमिल करता है।