विकास की रणनीति में चुनावों की गणना का ही प्रताप है कि मंडी की डीम्ड यूनिवर्सिटी को एक बड़े विश्वविद्यालय का पोशाक पहनाया जा रहा है। इस कड़ी में मुख्यमंत्री का ऊना दौरा अपनी करवटों में जनता के मूड को बदलने का श्रमदान ही तो है। कमोबेश हर जिला में अब विकास के तंबू खड़े किए जाएंगे और इनकी पहरेदारी में कोई न कोई मंत्री रहेगा। राकेश पठानिया भले ही फतेहपुर चुनाव में पार्टी के दांत खट्टे होने से नहीं बचा पाए, लेकिन वह धर्मशाला आकर सपनों के नए द्वार खोल रहे हैं। अब उनके पास कौनसा अलादीन का चिराग हाथ आ गया कि वह वादा करने लगे। वह केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व में धर्मशाला की रगड़ मिटाना चाहते हैं, तो कांगड़ा हवाई अड्डे के विस्तार के लिए उदारवादी हो जाते हैं। यह दीगर है कि कांग्रेस सरकार के दौर में मंजूर 23 करोड़ की धनराशि से राष्ट्रीय खेल प्रशिक्षण हॉस्टल में एक भी ईंट नहीं लगा पाए। बतौर वन व खेल मंत्री उनकी योजनाओं और परियोजनाओं का एहसास शायद ही कांगड़ा को हुआ है। वह नूरपुर से बैजनाथ तक के नेशनल हाई-वे पर विकास के गड्ढे देख सकते हैं या ईको टूरिज्म के नाम पर जंगल में नाचते मोर देख सकते हैं
राजनीति में विकास की वास्तुशैली भले ही दूर से नजर आ सकती है, लेकिन हिमाचल में आजतक कोई भी मिशन रिपीट इस तरह पूरा नहीं हुआ। इसमें दो राय नहीं कि अब तक की सभी सरकारों ने विकास के जरिए और कर्मचारी राजनीति के पक्ष में बड़े काम किए, लेकिन जनता की मुराद इन्हीं से पूरी नहीं हुई। इस बार भी सत्ता पक्ष की कोशिशों में सिर झुकाए कर्मचारियों के झुंड और सरकार के वादों का एक बड़ा कैनवास तैयार था, लेकिन मतदाता ने अपने ही तरीकों और तीरों से शिकस्त दी। फिलहाल यह चंद सिसकियां थीं, जिन्होंने सरकार को बेहतर स्थिति से उतार कर अनिश्चितता के मुकाम पर ला कर पटक दिया। इस सियासी अनिश्चितता को पढ़ पाने में संगठन कितना कामयाब होगा या सरकार किस चुस्ती से क्षेत्रीय संवेदनाओं को राहत पहुंचा सकती, इसका एक स्पष्टीकरण आने वाले जनमंचों के मार्फत मिलेगा। राजनीति की नई दौड़ में सत्ता के इवेंट तथा सत्तारूढ़ दल के एक्शन कितना आगे देख पाते हैं, लेकिन इन सबके बीच महंगाई को भूल पाना असंभव होगा। हिमाचल के मध्यम वर्गीय परिवारों के साथ-साथ सामान्य वर्ग के लिए रसोई गैस की कीमत तथा चूल्हे पर चढ़ने वाली सामग्री नकारात्मकता पैदा करती है। विकास के लिए आयोजित समारोहों में रौनक व रुतबा हो सकता है या यह माना जा सकता है कि अमुक विधायक ने बड़े काम कर दिए, लेकिन हर घर का माहौल जब महंगाई से ओत-प्रोत हो कर शिकायत करता है, तो जतना खामोशी से भी बहुत कुछ कह पाने में सक्षम हो जाती है। उपचुनावों में हार-जीत के जिस पलड़े पर जनता सवार रही, वहां महंगाई का शोर और महंगाई का ठौर नजर आता है।