तय कार्यकाल मिले
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को ठीक ही ध्यान दिलाया कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के कार्यकाल की कम अवधि का बुरा असर चुनाव सुधारों पर पड़ रहा है और इससे आयोग की स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है।
नवभारत टाइम्स: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को ठीक ही ध्यान दिलाया कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के कार्यकाल की कम अवधि का बुरा असर चुनाव सुधारों पर पड़ रहा है और इससे आयोग की स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है। तथ्य खुद पूरी स्थिति स्पष्ट कर देते हैं। 1950 से लेकर 1996 तक शुरुआती 46 वर्षों में देश में 10 निर्वाचन आयुक्त हुए। यानी इनका औसत कार्यकाल करीब साढ़े चार साल का निकलता है। इसके बाद के 26 वर्षों में 10 चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं। इनका औसत कार्यकाल करीब ढाई साल बनता है। इन दोनों अवधियों को जो चीज अलग करती है वह है मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टी एन शेषन का बहुचर्चित कार्यकाल।
देखा जाए तो देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग कितनी अहम भूमिका निभाता है यह बात रेखांकित ही हुई शेषन के कार्यकाल में। आश्चर्य नहीं कि छह साल का संविधान द्वारा तय कार्यकाल पूरा करने वाले वह आखिरी चुनाव आयुक्त साबित हुए। हालांकि संवैधानिक व्यवस्था अब भी यही है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्ति के दिन से छह वर्ष की अवधि या 65 साल की उम्र होने तक (जो भी पहले हो) अपने पद पर रहेंगे। चूंकि ज्यादातर चुनाव आयुक्त नौकरशाह ही रहे हैं, इसलिए उनके रिटायरमेंट की उम्र पहले से पता होती है। जाहिर है कोई सरकार इसे स्वीकार करे या न करे, चयन ही इस तरह से होता रहा है कि किसी को भी इस पद पर ज्यादा समय न मिले। नतीजतन, कोई भी चुनाव आयुक्त अपने विजन को कार्यान्वित करने का मौका नहीं पाता।
सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ध्यान दिलाया कि चूंकि संविधान में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया तय नहीं की गई है और यह काम संसद पर छोड़ा गया है, ऐसे में तमाम सरकारें संविधान की इस चुप्पी का फायदा उठाती रहीं। फायदा उठाने की बात इसलिए भी थोड़े विश्वास के साथ कही जा सकती है क्योंकि ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने इसे तय करने की कोई बात आई ही न हो। आंतरिक प्रस्तावों, सुझावों को छोड़ दें तो भी लॉ कमिशन 2015 की अपनी रिपोर्ट में कह चुका है कि मुख्य चुनाव आयुक्त समेत सभी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तीन सदस्यीय चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होनी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष (या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता) के अलावा देश के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हों। बावजूद इसके सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैये के बाद अब उम्मीद की जानी चाहिए कि यह मामला अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचेगा। आखिर, भारत जीवंत और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसे चुनाव सुधारों के जरिये और मजबूत किया जाना चाहिए।