इतिहास के आईने में गांधी और सावरकर
एक बार फिर महात्मा गांधी और विनायक दामोदर राव सावरकर के एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी विचार आमने -सामने चर्चा में है
एक बार फिर महात्मा गांधी और विनायक दामोदर राव सावरकर के एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी विचार आमने -सामने चर्चा में है। इस परिपेक्ष्य में उन मुलाक़ातों की चर्चा और इस बहाने महात्मा गांधी और विनायक दामोदर राव सावरकर के बीच वैचारिक आदान-प्रदान से कुछ विवादित सूत्रों की तलाश कर इन दोनों महापुरुषों के बीच मतभेद को समझना ज्याद सार्थक होगा।
महात्मा गांधी और सावरकर की पहली मुलाकात अक्टूबर 1906 में लंदन में होती है, तब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रह रहे, भारतीय समुदाय की बढ़ती मुसीबतों से राहत की उम्मीद से ब्रिटिश हुकूमत से बातचीत के लिए लंदन गए थे। इस यात्रा के दौरान वे भारतीय समुदाय के लोगों से समर्थन जुटाने के मकसद से 'इंडिया हाउस' रहकर कानून की पढ़ाई कर रहें, विनायक दामोदर सरकार मिलते है। वी.डी सावरकर 1906 में श्याम कृष्ण वर्मा की छात्रवृति पर लंदन कानून की पढ़ाई करने गए थे।
यह छात्रवृत्ति उन्हें बाल गंगाधर तिलक की संस्तुति पर मिलीं थी, तब श्याम कृष्ण वर्मा 'इंडिया हाउस' की देखरेख कर रहे थे। नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी किताब 'द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट' में बताया है कि उस शाम जब महात्मा गांधी जी सावरकर के कमरे में पहुंचे तो वे झींगे तल रहें थे। गांधी और सावरकर के बीच 24 अक्टूबर 1909 में दशहरा के दिन लंदन में हुई मुलाकात और दोनों के बीच रामराज्य पर हुई चर्चा का जिक्र: वीरेन्द्र कुमार बरनवाल की राजकमल प्रकाशन से छपीं पुस्तक" हिन्द स्वराज और नव सभ्यता विमर्श में है।
बातचीत की शुरुआत में गांधी जी ने कहा कि अंग्रेजों के विरुद्ध आपकी रणनीति जरूरत से ज्यादा आक्रमक है। सावरकर ने गांधी जी से खाना खाने का आग्रह किया।
गांधी ने यह कहकर खाने से मना कर दिया कि वे मांस-मछली नहीं खाते। इस पहली मुलाकात में महात्मा गांधी सावरकर के कमरे से बिना खाना खाए और समर्थन हासिल किए खाली हाथ लौटे, पर इस मुलाकात में गांधी को वहां पढ़ने वाले छात्रों पर सावरकर के हिंसक विचारों के असर को नजदीक से देखने का मौका मिला।
दूसरी मुलाकात फिर 'इंडिया हाउस' में होती है। 24 अक्टूबर 1909 को दशहरा के अवसर पर। उस दिन भारतीय समुदाय के लंदन में पढ़ रहे छात्रों ने एक भोज का आयोजन किया। इस भोज में महात्मा गांधी को भी बुलाया गया। गांधी ने अपनी ओर से यह शर्त रखी कि भोजन शाकाहारी होना चाहिए और उस अवसर पर कोई राजनीतिक बातचीत नहीं होगी।
यहां याद दिलाना जरूरी है कि कानून की पढ़ाई करने लंदन जाने के पहले ही अपने परिवारी जनों को गांधी जी आश्वासन दे चुके थे कि विदेश प्रवास के दौरान वे- मांस, शराब, और पर स्त्री गमन से परहेज करेंगे। इस आयोजन में बातचीत राजनीति पर सीधे नहीं हुई। पहले गांधी जी को बोलने के लिए कहा गया गया। गांधी जी अवसर के 'रामराज्य' पर चर्चा शुरू किया। इस चर्चा से एक सूत्र यह मिला कि भारत कीआजादी के सवाल पर गांधी और सावरकर के दृष्टिकोण में कितना फर्क है? गांधी जी भारत की आजादी के लिए राम का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
बताते हैं कि राम का निःस्वार्थ और मर्यादित चरित्र मानव कल्याण के लिए जरूरी हैं। गांधी जी रावण के अधीन रहते हुए सीता जी के अदभुत संयम और त्याग की भी चर्चा करते हैं। राम के छोटे भाई लक्ष्मण के वनवास के दौरान भातृत्व प्रेम और त्याग के आदर्श को भी सामने रखते हैं।
बताते है कि इस त्याग -संयम और आदर्श के राह चलकर, भारत अपनी आजादी हासिल कर सकता है। सावरकर इसके विपरीत बताते है कि रामराज की स्थापना के लिए रावण का वध जरूरी है। बिना उसके बध 'रामराज' की स्थापना नहीं हो सकती। देवी दुर्गा के संहारक रूप की चर्चा करते हुए वे बताते है कि शक्ति की देवी ही बुराइयों के अंत कर सकती है।
महात्मा गांधी और वीर सावरकर के बीच इस चर्चा की पृष्ठभूमि में वह घटना भी अभी ताजा थी। 1 जुलाई 1909 को मदन लाल धींगरा ने कर्नल विलियम हट वायली की हत्या कर दिया। कर्नल वायली भारत सरकार के सचिव के सलाहकार और ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजों के लिए भारतीयों को गुप्तचर के रूप में इस्तेमाल करने वाले शख्स रहे थे।
17 अगस्त 1909 को 26 साल से कम उम्र के मदन लाल धींगरा को फांसी दी गई। फांसी दिए जाने के पहले 23 जुलाई 1909 को मदनलाल ने अदालत में यह बयान दिया कि "मुझे गर्व है कि मैं अपना जीवन समर्पित कर रहा हूं।" मदन लाल धींगरा की फांसी को कोसते हुए दामोदर सावरकर ने इसे देश के लिए एक देश भक्त का बलिदान करार दिया। कहा यह जाता है कि कर्नल वायली के हत्या का 'टारगेट' सावरकर ने मदन लाल को दिया था। इस हिदायत के साथ कि अगर 'टारगेट' में कहीं चूक हुई, तो फिर मुझे मुंह मत दिखाना।
गांधी जी ने इस पृष्ठभूमि में लंदन में यह बयान दिया कि "नशा केवल शराब और भांग की ही नहीं होती। उतेजक विचारों का भी, वैसा ही नशा होता है। मेरे विचार से धींगरा ने उन्माद में ही, यह हत्या किया है।" मदन लाल धींगरा की फांसी और भारत में खुदीराम बोस, कन्हाई दत्त, सतिंदर पाल कांशीराम की फांसी दिए जाने का लंदन में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को गहरा सदमा लगा था।
वे अपने देश में घट रहीं ऐसी घटनाओं से उद्वेलित थे।उन्हें लग रहा था कि इसके लिए जिम्मेदार कुछ चुनिंदा व्यक्तियों की हत्या कर देश को आजाद कराने के लक्ष्य को हासिल कर लेंगें। ऐसे माहौल के बीच गांधी और सावरकर 'रामराज्य ' की चर्चा करते हैं। देश की आजादी के लिए अपने अलग -अलग राह पर चल देते हैं।
गांधी की यह विशेषता रहीं है कि वे भारतीय सभ्यता की मूल मान्यताओं और पश्चिमी सभ्यता की खामियों को अपने समय में सबसे बेहतरीन तरीके से समझते थे। उनकी मान्यता थी कि जिस सता को जिन तरीकों से हासिल किया जाता है, उसे वैसे ही बहाल रखा जा सकता है, किसी और तरीके से नहीं। विचारक आशीष नंदी बताते है कि गांधी की नज़र में" हिंसक प्रतिरोध और हिंसा पश्चिमी सभ्यता और समाज का हिस्सा है।
इसके बरक्स गांधी ब्रिटिश साम्राज्य से प्रतिरोध के लिए गैर-परंपरागत तरीके स्वदेशी, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा की नजीर पेश करते हैं।" क्योंकि अंग्रेजों को आयरलैंड में ऐसी हिंसक गतिविधियों को सैन्य और प्रशानिक तरीके से निपटने का तरीका मालूम था।
आशीष नंदी बताते हैं-
गांधी से पहले हिन्दू राष्ट्रवादियों, सिखों और साम्यवादियों ने भी प्रतिरोध के लिए इन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि लंदन प्रवास के शुरुआती दौर में ही दामोदर सावरकर ने इटली के क्रांतिकारियों पर एक पुस्तिका लिखी और उसकी दो हजार प्रति महाराष्ट्र में बिक गई, तब अधिकतर भारतीय क्रांतिकारियों की सोच इटली, जर्मनी और जापान के अराजकतावादियों से प्रेरित था। देशज प्रतिरोध का तरीका गांधी से पहले किसी हिन्दू सुधारवादी आंदोलन का भी हिस्सा नहीं था।
गांधी जी दरअसल 'रामराज्य' की कल्पना के जरिए पश्चिमी 'राज्य की अवधारणा' का विकल्प प्रस्तुत कार रहें जो हैं, जो भारत के साम्यवादियों और अम्बेडकरवादियों को इस लिए नापसंद हैं, कि इसमें हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है।
यहां समझने की जरूरत है कि गांधी के 'राम' न दशरथ पुत्र राम है, न ही उनका 'रामराज्य' आज के हिंदूवादियों द्वारा घोषित-पोषित 'रामराज्य' है। गांधी की यह खूबी रही है कि अपने हर आंदोलन में ऐसे प्रतीकों को आगे करते रहे है - जो लोकमानस में आसानी से उतर जाए।
'रामराज्य' उनके कल्पना का ऐसा ही राज्य है। लोक मर्यादा और लोकलाज से चालित, नैतिक मूल्यों पर अधारित, ऐसे धर्म पर आधारित लोकराज जिसकी व्याख्या करते हुए वेदव्यास बताते है कि- नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजा:। यत् स्यात धारण संयुक्तम स धर्मइत्युदाहृत:।।(उस महान धर्म को प्रणाम है, जो सब मनुष्यों को धारण करता है। सबको धारण करने वाला जो नियम हैं, वे धर्म हैं।)
महाभारत के शांतिपर्व में व्यास जी कहते है कि "सर्वे लोका राजधर्मे प्रवृष्टा:।" (राज्य धर्म पर और धर्म राज्य पर आधारित है।) भारतीय इतिहास के मनस्वी विचारक वासुदेव शरण अग्रवाल ने महात्मा गांधी को भारतीय राष्ट्रीयता को सत्य और धर्म से जोड़ने के प्रयास को भारतीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण योगदान बताया है।
वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में वाल्मिकी ने यह सवाल उठाया है कि जीवन में 'चरित्र से युक्त कौन है? वासुदेव शरण अग्रवाल बताते है कि इस चरित्रवान व्यक्ति को ढूंढ़ने के लिए आदिकाव्य रामायण का जन्म हुआ। वाल्मिकी के लिए चरित्र और धर्म पर्यायवाची शब्द है, इसलिए उनकी नजर में राम धर्म की प्रकट मूर्ति है- 'रामो विग्रहवान धर्म:' राम शरीरधारी धर्म है।
वनवास से वापस अयोध्या आने पर वे क्षत्रिय धर्म धारण करते है। सीता को समझाते है कि" हे देवि तुम समझती ह़ो क्षत्रिय लोग इस लिए धनुष बांधते है कि राष्ट्र में आर्त-शब्द सुनाई न पड़े।(क्षत्रियै धारयते चापोनार्त्त शब्दो भवेदिति।) व्यास-वाल्मिकी के राजधर्म -रामराज की व्याख्या के जरिये यह समझने-समझाने की कोशिश किया जाए तो शायद यह ज्यादा समीचीन होगा कि"रामराज्य की युगानुकूल व्याख्या महात्मा गांधी की सटीक है कि दामोदर विनायक राव सावरकर की?
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।