पुष्कर सिंह धामी से लेकर ममता बनर्जी तक, लोकतंत्र में जिन्हें मतदाताओं ने अस्वीकार कर दिया उन्हें उच्च पद पर बिठाना कितना जायज है?
चुनाव हारने के बाद भी मुख्यमंत्री बने
अजय झा.
भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने सोमवार को उत्तराखंड और गोवा के मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी (Pushkar Singh Dhami) और प्रमोद सावंत (Pramod Sawant) के नाम का ऐलान किया. इस फैसले से जहां इस मुद्दे पर पड़ा पर्दा उठ गया, वहीं एक गैर-जरूरी अनिश्चितता का दौर भी समाप्त हुआ. धामी जहां एक तरफ अपने किस्मत के शुक्रगुजार थे, तो वहीं वे दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी धन्यवाद दे रहे होंगे. ममता बनर्जी उन नेताओं के लिए एक मिसाल बन गई हैं जो जनता द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के बावजूद भी मुख्यमंत्री बन जाते हैं. बनर्जी की तरह धामी भी अपना चुनाव तो हार गए लेकिन अपनी पार्टी को शानदार जीत जरूर दिलाया.
क्रिकेट में एक विवादास्पद नियम है जिसके तहत नॉन-स्ट्राइकर एंड पर खड़े बल्लेबाज को गेंदबाज रन आउट कर सकता था यदि बल्लेबाज बॉलिंग करने से पहले क्रीज से बाहर निकल गया हो. यह बल्लेबाज को रन आउट करने का एक वैध तरीका तो था, लेकिन इसे हमेशा खेल की भावना के खिलाफ देखा जाता था. महान भारतीय आलराउंडर वीनू मांकड़ ने सबसे पहले इस तरह से असामान्य रन आउट करार दिए जाने के नियम का फायदा उठाया और रन आउट के इस रूप का नाम उनके नाम पर रखा गया.
चुनाव हारने के बाद भी मुख्यमंत्री बने
इसी तरह संविधान में भी उन लोगों के लिए एक प्रावधान है जो विधायक बनने की योग्यता तो रखते हैं लेकिन किसी भी सदन के सदस्य नहीं है. संविधान ऐसे लोगों को इस शर्त के साथ मंत्री बनने की इजाजत देता है कि वे शपथ लेने के छह महीने के भीतर सदन के सदस्य बन जाएंगे. बहुत पहले साल 1991 में तत्कालीन प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए विशेषज्ञ डॉ मनमोहन सिंह को अपने मंत्रीमंडल में बतौर वित्त मंत्री शामिल किया था. सिंह बाद में असम से राज्यसभा के लिए चुने गए.
बहरहाल, ममता बनर्जी को मतदाताओं ने खारिज कर दिया था. बावजूद इसके उन्होंने पद पर बने रहने के लिए इस कानूनी पहलू का फायदा उठाया. पिछले साल पश्चिम बंगाल के चुनावों में नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र से ममता बनर्जी चुनाव हार गई थीं . लेकिन ये हार उन्हें फिर से मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने से नहीं रोक सका. यह कानूनी रूप से भले ही जायज हो लेकिन लोकतंत्र की भावना से मेल नहीं खाता है. ममता बनर्जी के नक्शेकदम पर चलते हुए बीजेपी ने अब पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया है. यहां यह बताना जरूरी है कि धामी खटीमा सीट से चुनाव हार गए थे जहां कांग्रेस पार्टी के भुवन चंद्र कापड़ी ने उन्हें 6,579 मतों से हराया था.
बीजेपी ने यकीनन ये महसूस किया कि धामी के मजबूत नेतृत्व की वजह से पार्टी फिर से इतिहास लिखने में कामयाब रही. उत्तराखंड में अभी तक कोई भी पार्टी सत्ता-विरोधी लहर को पराजित कर सत्ता के गलियारों में दोबारा कदम नहीं रख पाई है. चूंकि उन्होंने चुनाव की घोषणा से छह महीने पहले ही मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला था, इसलिए बीजेपी ने उन्हें "बेनिफिट ऑफ डाउट" (संदेह का लाभ) देते हुए उत्तराखंड की राजनीतिक पिच पर नॉट आउट घोषित कर दिया.
सावंत के नाम पर फैसला लेने में बीजेपी को 11 दिन लग गए
गौरतलब है कि मनमोहन सिंह और ममता बनर्जी में काफी अंतर है. सिंह न तो राजनीति में थे और न ही उन्होंने किसी तरह का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चुनाव लड़ा था लेकिन फिर भी वो केन्द्र में एक कैबिनेट मंत्री बने. लेकिन बनर्जी को नंदीग्राम के मतदाताओं ने स्टम्प आउट कर दिया था. जब बनर्जी ने इस कानूनी रास्ते का इस्तेमाल करते हुए मुख्यमंत्री बने रहने का फैसला लिया था तो बीजेपी ने उन पर चुटकी ली थी. बहरहाल आज बीजेपी खुद इसका इस्तेमाल कर रही है. बीजेपी ने बुधवार को धामी के शपथ ग्रहण के लिए मंच तैयार किया क्योंकि बीजेपी उन्हें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी के रूप में देखती है और ये मानती है कि उन्हें एक और मौका दिया जाना चाहिए.
इसी सियासत के दूसरी तरफ गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत थे. धामी से सावंत सिर्फ दो साल बड़े हैं लेकिन अभी भी उन्होंने 50 के अंक को नहीं छुआ है और धामी से दो साल पहले साल 2019 में वे गोवा के मुख्यमंत्री बने थे जब करिश्माई जन नेता मनोहर पर्रिकर का निधन हो गया था. सावंत को एक शांत और मृदुभाषी नेता के रूप में देखा जाता है न कि एक स्वाभाविक नेता के रूप में. शुरूआती दौर में जब मतगणना शुरू हुई थी तो वे अपने कांग्रेस प्रतिद्वंदी धर्मेश सगलानी से पीछे चल रहे थे. लेकिन अंततः सावंत 666 मतों से जीत हासिल करने में कामयाब रहे. 666 एक ऐसा अंक है जो ईसाई धर्म में शैतान के साथ जुड़ा हुआ है.
और वाकई शैतान ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया. उनके नेतृत्व की गुणवत्ता पर सवाल उठाए गए थे क्योंकि वह सैंक्वेलिम निर्वाचन क्षेत्र में अपने मतदाताओं को आकर्षित करने में विफल रहे थे. बतौर मुख्यमंत्री और चुनाव दोनों में ही उनका प्रदर्शन शानदार नहीं था. लाजिमी है कि इस ट्रैक रिकार्ड ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को संदेह में डाल दिया. केन्द्रीय नेतृत्व को सावंत के नाम पर फैसला लेने में ठीक 11 दिन लग गए. आखिरकार, बीजेपी नेतृत्व ने यह माना कि 40 सदस्यीय विधान सभा में सावंत की रहनुमाई में ही बीजेपी ने 2017 में जीती गई 13 सीटों से अपनी संख्या बढ़ाकर 20 कर ली है.
18 बीजेपी विधायकों ने सावंत के नाम का समर्थन किया
बाकी संविधान द्वारा निर्धारित एक औपचारिकता मात्र थी कि विधायक अपने नेता का चुनाव करें. एक बार जब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनके करीबी विश्वासपात्र अमित शाह ने ये फैसला ले लिया कि सावंत ही मुख्यमंत्री होंगे तो वे सर्वसम्मति से चुन लिए गए. इतना ही नहीं, इस बैठक में उनके नाम का प्रस्ताव उनके कट्टर विरोधी विश्वजीत राणे द्वारा लाया गया. राणे खुद भी मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल थे. बाकी 18 बीजेपी विधायकों ने सावंत के नाम का समर्थन किया.
विवादास्पद मुद्दा यह है कि जब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को ही यह तय करना था कि उत्तराखंड और गोवा के मुख्यमंत्री कौन होंगे और अगर उन्हें धामी और सावंत के नाम पर कोई संदेह नहीं था, तो उन्होंने फैसला लेने में 11 दिन क्यों लगा दिए? विधायिका और न्यायपालिका को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या कानूनी लूपहोल्स का फायदा उठाकर मतदाताओं द्वारा खारिज किए गए किसी व्यक्ति को उच्च पद देना लोकतंत्र का मजाक नहीं है, जैसा कि धामी के मामले में हुआ. जहां तक सावंत की बात है तो उनके लिए ये कहा जा सकता है कि जीत आखिरकर जीत ही होती है चाहे अंतर कितना भी हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)