कोलकाता से: बहुत उदास है शहीद जतीन दास का घर

वर्ष 1980 में मैंने जतीन दास से जुड़ी जो चीजें देखी थीं, वे अब गायब हो चुकी हैं। कोलकाता में क्रांति के मिटते निशानों को कौन बचाए?

Update: 2021-10-22 03:53 GMT

सुधीर विद्यार्थी

कोलकाता में 'महाजाति सदन' देखने के बाद हम हाजरा मोड़ होते हुए शहीद जतीन दास के घर 1, अमिता घोष रोड पहुंचे, तो वहां बहुत कुछ बदल चुका था। सड़कों और दुकानों के रंग-रूप पहले जैसे नहीं रहे। फिर भी जतीन दास का घर अपनी पुरातनता के साथ बरकरार है। सीढ़ियां चढ़ते हुए हम ऊपर पहुंचे, तो एक अबूझ सन्नाटे ने हमें घेर लिया। मैं जब 1980 में जतीन की बलिदान अर्धशती पर यहां आया था, तब शहीद के भाई किरण चंद्र दास जीवित थे। 

अब उनके बेटे मिलन और उनकी पत्नी हैं। उन दिनों यहां जतीन दास के कुछ निशान थे, जो अब गायब हो चुके हैं। पूछने पर मिलन ने बताया कि चोरी में वे सब चीजें चली गईं। 13 सितंबर, 1929 को शहीद की अर्थी को लाहौर जेल के द्वार से निकाले जाते समय नेताजी सुभाष द्वारा कंधा दिए जाने वाला चित्र भी दीवार से नदारद है। बस, जतीन की एक पेंटिंग टंगी है, जिसे बाद में बनवाया गया है।

जॉब चार्नक का यह शहर अपनी उम्र के करीब सवा तीन सौ तीस साल पूरे कर चुका है। 16 अगस्त, 1690 को चार्नक ने जिस वक्त सूतानुटी गांव में अपना कदम रखा था, उस समय दोपहर का वक्त था और खूब बारिश हो रही थी। तब यहां कुल मिलाकर तीन मौजे थे- सूतानुटी, गोबिंदपुर और खालीकाटा। चार्नक ने इन गांवों को एक करके कलकत्ता बनाया। यही खालीकाटा नाम आगे चलकर कलकता और अब कोलकाता में तब्दील हो चुका है। 

कभी देश की राजधानी रहे इस शहर को 'भागता हुआ शहर' कहा गया, तो किसी ने इसे एक पूरे न होने वाले दुःस्वप्न की तरह देखा। कोई इसे 'जुलूसों का शहर' कहता रहा, तो कोई मानता रहा कि 'कलकत्ता मर गया है। 'पर कोलकाता बाकायदा जिंदा है। यहां आपाधापी है, समृद्धि है, तो बदहाली, गरीबी और हताशा भी कम नहीं है। कोलकाता क्रांति का भी केंद्र रहा, जहां लंबे समय तक लाल झंडे की सरकार थी। 

वर्ष 1927 में यहां इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी की स्थापना हुई, जहां से रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविताओं का सीधा प्रसारण किया। इसी शहर में वर्ष 1931 में बांग्ला की पहली बोलती फिल्म का प्रदर्शन हुआ और 1934 में पहली बार ईडन गार्डंस में भारत और इंग्लैंड के बीच क्रिकेट मैच खेला गया। हम यह भी विस्मृत नहीं कर सकते कि मदर टेरेसा ने सात अक्तूबर, 1950 को अपने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना इस शहर में की और पथेर पांचाली फिल्म के निर्माण ने इतिहास के दरवाजे पर दस्तक दी। 

यह काली पूजा का भी शहर है। दूर देस से नौकरी करने आते बलम इस शहर में आकर बिलम जाते रहे हैं। शायद इसीलिए जो रेलगाड़ी लंबा सफर तय करके इस शहर में आती है, उसकी छुक-छुक करती आवाज लोक मनों में 'धर दे पैसा चल कलकत्ता' बनकर जाने कितने समय तक ध्वनित होती रही। बंगाल के अनूठे क्रांतिकारी यतींद्र यानी जतीन ने देश की आजादी के लिए सुदूर पंजाब की लाहौर जेल में 63 दिन के दीर्घ अनशन में 13 सितंबर, 1929 को अपने प्राण दिए थे। 

जतीन दास की शहादत के बाद लाहौर जेल से 13 सितंबर को चली उनकी अंतिम यात्रा 16 को यहां कोलकाता के कालीबाड़ी में आकर समाप्त हुई थी। यहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ था। यतींद्र का शव लाहौर से कलकत्ता ट्रेन से लाया गया था और देश भर में जगह-जगह पुष्पवर्षा करके जनता ने उस शहीद का सम्मान किया। कहते हैं कि बंगाल में यतींद्र की अर्थी के पीछे रिकॉर्ड दो लाख लोगों की भीड़ थी। वह कालीबाड़ी श्मशान भूमि अब भी है, जहां 92 साल पूर्व जतीन की चिता जली थी। 

यहीं वर्ष 1980 में जतीन की प्रतिमा लगाई गई। एक समय इस कोलकाता शहर में अंडमान में राजबंदी रह चुके क्रांतिकारियों का भी एक बड़ा संगठन था। लेकिन पुराने क्रांतिकारी सब मर-खप गए। आशुतोष मेमोरियल के पास शहीद जतीन दास की प्रतिमा लगी है, पर उसकी ओर कोई नहीं देखता। यहां पार्क तथा शहीद जतीन व्यायामशाला है। जतीन दास के नाम पर अब एक मेट्रो स्टेशन बन चुका है। 

दक्षिण कलकत्ता तरुण समिति, भवानीनगर एक समय शहीदों के प्रति बहुत आस्थावान थी, पर अब लगता है कि सब कुछ विस्मृति के घेरे में है। एक मोटर ट्रेनिंग स्कूल के अहाते में बने घर के भीतर जतीन दास का जन्म हुआ था। वर्षों पहले किरण दा ने यहीं खड़े होकर मुझसे कहा था, 'दिस वाज द रूम व्हेयर जतिन दास बॉर्न ऐंड अरेस्टेड।' गिरीश मुकर्जी रोड पर आनंद प्रेस का वह छापाखाना इस बार हम देखने नहीं जा पाए, जिसमें द रिवोल्यूशनरी पर्चा छपा था और जो भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का विशिष्ट दस्तावेज है। 

एक समय हमने उस पुराने प्रेस की मशीनों के पुर्जे छूकर देखे थे। वर्ष 1979 में दुर्गा भाभी और प्रतिभा सान्याल ने लखनऊ के एक आयोजन में जतीन दास पर एक डाक टिकट जारी किया था। आज अमिता घोष रोड पर जतीन दास के घर बैठे हुए मेरी आंखें पूरे समय तक किरण दा, उनकी पत्नी, क्रांतिकारी गणेश घोष, बीणा दास और शांति घोष (दास) को तलाश करती रहीं, जो अब कहीं नहीं हैं। कोलकाता अब हमारे लिए उदास करने वाला शहर बन चुका है। यहां क्रांति के मिटते निशानों को आखिर कौन बचाए?

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