मुफ्त का आकर्षण

देश की हरेक पार्टी अपने लोक-लुभावन वादों से जनता को अपनी ओर आकर्षित करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता भी जाहिर की थी। इन सबके बावजूद लुभावनी वादों की झड़ी लगी हुई और नेताओं के द्वारा लगातार लोक-लुभावन घोषणा किए जा रहे हैं। अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश में यही देखने में आ रहा है।

Update: 2022-10-12 06:16 GMT

Written by जनसत्ता; देश की हरेक पार्टी अपने लोक-लुभावन वादों से जनता को अपनी ओर आकर्षित करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता भी जाहिर की थी। इन सबके बावजूद लुभावनी वादों की झड़ी लगी हुई और नेताओं के द्वारा लगातार लोक-लुभावन घोषणा किए जा रहे हैं। अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश में यही देखने में आ रहा है।

एक तरफ आम आदमी पार्टी रैली करके जनता को लुभावने वादे से मोह रही है, वहीं कांग्रेस भी इसमें पीछे नहीं है। अरविंद केजरीवाल हर महीने तीन सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, सरकारी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा, बेरोजगारी भत्ता, महिलाओं को एक हजार रुपए का भत्ता और नए वकीलों को मासिक वेतन देने जैसी कई रियायतें देने की बातें कर रहे हैं।

वहीं कांग्रेस भी मतदाताओं को रिझाने और सत्ता में लौटने के अपने लंबे इंतजार को खत्म करने के लिए कई लुभावने वादे लेकर आई है। अब भाजपा के लुभावने वादों का इंतजार है। हालांकि कहने को भारतीय जनता पार्टी इन वादों के खिलाफ है।

विडंबना है कि इस मुफ्त की रेवड़ी से आम जनता को फायदा पहुंचता है। लेकिन इसका कड़वा सत्य यह है कि ज्यादातर वादे सिर्फ नेताओं के मुंह तक ही सीमित रह जाते हैं और आम जनमानस इन नेताओं के चक्कर में पड़ जाते हैं। अगर ये लोक-लुभावन वादे मिल भी जाते हैं, तो इसका खमियाजा बाद में जनता को ही भुगतना पड़ता है। बड़े-बड़े होर्डिंग और बैनर लगाकर बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने वाली पार्टी जनता को बेवकूफ समझते हैं। तभी तो ऐसा करते हैं और जनता भी इनकी भाषणों में उलझ जाते हैं।

आजकल परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है, इस बात में कोई संदेह नहीं है। पहले परिवार बड़े और संयुक्त होते थे, जहां बुजुर्गों को पूरा सम्मान मिलता था। घर के ज्यादातर निर्णय उनकी रजामंदी से ही होते थे। लेकिन धीरे-धीरे परिवार बढ़ने की वजह से घर छोटे लगने लगे तो परिवार भी टूटने लगे। कुछ बच्चे पढ़ाई या नौकरी के चलते परिवार से दूर होते गए, जिसका परिणाम यह हुआ कि बुजुर्ग अकेले होते गए।

बच्चों को परिवार का, दादा-दादी का साथ छूटता गया। इसलिए उन्हें वे सामाजिक प्रशिक्षण भी नहीं मिले जो घर के बुजुर्गों से मिलने चाहिए थे। मां बाप अपनी व्यस्तता के चलते बच्चों को समय नहीं दे पाते और इस तरह से बच्चे धीरे-धीरे उनसे दूर हो जाते हैं।

ऐसे ही कुछ मां-बाप पहले तो अपने बच्चों को पढ़ने के लिए या नौकरी के लिए विदेश भेज देते हैं और सभी को यह बताते हुए भी बड़ा गर्व महसूस करते हैं कि उनके बच्चे विदेश में रहते हैं। लेकिन फिर एक समय ऐसा भी आता है जब माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे वापस आ जाएं और उनके साथ रहें। लेकिन तब बच्चे लौटकर नहीं आ पाते। कुछ रोजी-रोटी के चक्कर में नहीं आ पाते और कुछ वहां के आजाद माहौल में रहने के आदि हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि वापस गए तो आजादी खत्म हो जाएगी।

अगर माता-पिता हिम्मत करके बच्चों के पास विदेश चले भी जाएं तो वे खुद को वहां के माहौल में ढाल नहीं पाते। बेटा-बहू, पोता-पोती सब अपने में गुम या काम में लीन। बुजुर्ग वहां भी खुद को अकेला ही पाते हैं। अब हमें यह समझना होगा कि पेड़ के पत्ते तभी तक हरे रहते हैं जब तक जड़ें हरी रहती हैं। अगर जड़ें सूख गर्इं तो पत्तों को भी सूखने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।


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