मैक्रों के अनुसार, 'इस्लाम पर बहस में हम प्राय: किंतु-परंतु करने लगते हैं
केवल मुस्लिम देश ही नहीं, लोकतांत्रिक देशों में भी मुस्लिम दबदबे वाले इलाकों में अन्य धर्मों के त्योहार मनाने से रोका जाता है। हर कहीं शरीयत थोपने की जिद राजनीति है, किंतु मैक्रों के अनुसार, 'इस्लाम पर बहस में हम प्राय: किंतु-परंतु करने लगते हैं। हर आतंकी हमले के बाद यही होता है।' फ्रांसीसी अवधारणा 'लयसिटे' यानी सेक्युलर नीति पर गलतफहमी भी उसका उदाहरण है। इसके तहत वहां किसी भी धर्म की आलोचना और खिल्ली उड़ाने तक का अधिकार है। फ्रांस में चर्च के वर्चस्व के प्रतिरोध में ही यह अवधारण उत्पन्न हुई थी। उसी के बाद वहां तर्क, विज्ञान और स्वतंत्रता का विकास हुआ। फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली अब्दो ने मुहम्मद साहब के कार्टून छापने के दशकों पहले से ईसा मसीह के असंख्य कार्टून भी प्रकाशित किए।
भारतीय नीतियां इस्लामपरस्त हैं, फ्रांस में इस्लामी नेता सेक्युलरिज्म के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं
वस्तुत: ऐसे मुसलमान भी हैं जो इस्लाम की आलोचना करना चाहते हैं, परंतु उन्हें भी भय से मौन रहना पड़ता है। आज 80 प्रतिशत फ्रांसीसी मानते हैं कि उन पर खतरा है। गत वर्ष एक शिक्षक सैम्युल पैटी की गला काटकर हुई हत्या उसी क्रम में है। किसी प्रतिवाद के लिए न्यायालय जाने के बजाय शरीयत के लिए हत्याएं करना राष्ट्रीय संस्कृति पर खुली चोट है, लेकिन इसे रोकने के उपायों को 'मुसलमानों को दबाने' की कोशिश कहा जा रहा है। इस चुनौती के समक्ष फ्रांस अपना सेक्युलरिज्म बचाने की कोशिश कर रहा है। रोचक यह कि फ्रांस में इस्लामी नेता सेक्युलरिज्म के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं, जबकि भारत में ऐसे ही नेता सेक्युलरिज्म की दुहाई देते हैं। कारण यही कि भारतीय नीतियां इस्लामपरस्त हैं। डॉ. आंबेडकर ने स्वयं कहा था कि भारतीय संविधान धार्मिक आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव करता है। इसीलिए यहां इस्लामी नेता सेक्युलरिज्म की रट लगाते हैं, जबकि फ्रांस में सेक्युलरिज्म को चुनौती देते हैं। वे जिहादी हमलों का दोष भी सेक्युलरिज्म को देते हैं। जिहादियों द्वारा शार्ली अब्दो के अधिकांश पत्रकारों को मार डालने का दोष उस पत्रिका पर ही मढ़ा गया। यहां भी मुंबई आतंकी हमले के बाद संसद में कहा गया कि यदि भारत इजरायल और अमेरिका के प्रति झुकाव रखेगा तो ऐसे हमले होंगे ही। अमेरिका में भी 11 सितंबर के हमले के बाद कइयों ने कहा कि यह तो होना ही था।
तुष्टीकरण ने मुसलमानों की उग्रता बढ़ाई
वस्तुत: लंबे समय से यूरोप में बहुलवाद की स्वीकृति के कारण तमाम इस्लामी रीतियों को छूट मिलती रही, लेकिन धीरे-धीरे हर कहीं महसूस किया गया कि इससे समाज में बहुलता के बजाय शरीयत का दबदबा क्रमश: बढ़ा। इस्लामी समूहों ने स्थानीय संस्कृति स्वीकारने के बदले हर बात में इस्लामी मान्यताएं लादने की नीति रखी। इसके लिए अविराम मांगें, शिकायतें और हिंसा उनका आम व्यवहार है। तुष्टीकरण ने संतुष्ट करने के बजाय उनकी उग्रता ही बढ़ाई है। इस चलन का एक कारण इस्लामी इतिहास और सिद्धांत के प्रति सार्वभौमिक अज्ञान भी है। जिनका मुकाबला करना है, उन्हीं से पूछ-पूछ कर चलने की नीति अधिकांश सरकारों ने अपना रखी है। वे 'उदार' मुसलमान नेताओं को ढूंढते हैं, पर प्राय: छल के शिकार होकर और जमीन दे बैठते हैं। फिर अपनी भूल छिपाने के चक्कर में नई-नई भूलें करते हैं। इस तरह, जिहाद इंच-इंच बढ़ता, जीतता है और काफिर तिल-तिल मरते, हारते हैं। भारत इसका क्लासिक उदाहरण है। दशकों पहले ही एक तिहाई देश इस्लाम को देकर भी उसे संतुष्ट करने के बजाय बाकी पूरा देश दांव पर लग गया है।
लोकतांत्रिक देशों में इस्लामी दबदबा बढ़ा
इसका कारण यही है कि लोकतांत्रिक देशों के नेता और बुद्धिजीवी आदि जिहाद के इतिहास से पूर्णत: अंधेरे में रहते हैं। अपनी इकहरी नैतिकता के चलते पूरी समस्या को समझ नहीं पाते। इसीलिए, धीरे-धीरे सभी लोकतांत्रिक देशों में इस्लामी दबदबा बढ़ा। फ्रांस ने अभी समझना ही शुरू किया है कि उनके देश में एक 'विशेष वर्ग' है, जो देश में मिल-जुल कर नहीं रहना चाहता। लिबरल बुद्धिजीवी भी फ्रांस में 'मुसलमानों को निशाना बनाने' की शिकायत करते हैं, जबकि विपरीत निशाने को नजरअंदाज करते हैं। आखिर जितने मुसलमान किसी यूरोपीय देश या अमेरिका में हैं, उतने ही प्रतिशत हिंदू या बौद्ध भी हैं, किंतु ये किसी देश में कभी समस्या नहीं बनते। हर कहीं राजनीतिक इस्लाम दूसरों को निशाना बनाता है, जिसे रोकने के उपाय करने की कोशिश को मुसलमानों को परेशान करना कहा जाता है। वस्तुस्थिति यह है कि हरेक गैर-मुस्लिम देश में अधिकांश मुस्लिम नेता अलगाववादी भावना से चलते हैं। वे पूरे देश पर नियंत्रण या उसे तोड़ने की कोशिश करते हैं। राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना कर शरीयत की मांग उसी का अंग है। यह धर्म नहीं, राजनीति है।
सेक्युलरिज्म एकतरफा नहीं चल सकता, फ्रांस में लयसिटे और इस्लाम की कशमकश
नि:संदेह मुसलमानों के विरुद्ध आम संदेह अनुचित है, किंतु इसे खत्म करने में मुसलमानों की भी जिम्मेदारी है। पहले उन्हें इस्लाम की घोषित काफिर-घृणा को सचमुच बंद करना होगा। 'इस्लामोफोबिया' की शिकायत झूठी है, क्योंकि खुद मुसलमान भी स्वतंत्रतापूर्वक उसके बारे में बोलने से डरते हैं। तमाम इस्लामी नेता धमकी की भाषा बोलते हैं। सेक्युलरिज्म एकतरफा नहीं चल सकता। फ्रांस में लयसिटे और इस्लाम की कशमकश इसी बात पर है। आज नहीं तो कल, इस्लाम की इस मूल टेक को खंडित करना ही होगा कि उसे पूरी दुनिया पर शासन का अधिकार है। इसके बाद ही समान सहजीवन का रास्ता खुलेगा।