मंजिल और रास्ते
नए कृषि कानूनों के खिलाफ और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने की मांग के साथ किसानों को आंदोलन करते दस महीने होने जा रहे हैं।
नए कृषि कानूनों के खिलाफ और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने की मांग के साथ किसानों को आंदोलन करते दस महीने होने जा रहे हैं। इतने दिनों से वे दिल्ली की सीमाओं पर धरना दिए बैठे हैं। कुछ लोगों की शिकायत रही है कि इन धरनों की वजह से राह चलते लोगों, आसपास के कारखानों, गांवों आदि को परेशानियां उठानी पड़ती हैं। कारखानों को माल की आपूर्ति में बाधा आती है। यही बात अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कही है। इस संबंध में उसने विभिन्न राज्यों को नोटिस भी भेजा है। उसने कोविड को लेकर चिंता जताई है कि इस आंदोलन में शरीक होने वाले किसान कोरोना नियमों का सही ढंग से पालन नहीं कर रहे।
यहां तक कि आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सामाजिक कार्य विभाग से कहा है कि वह इस आंदोलन की वजह से औद्योगिक इकाइयों को होने वाले नुकसान और आसपास रहने वालों के जीवन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव का अध्ययन कर रिपोर्ट प्रस्तुत करे। अगर किसी आंदोलन की वजह से लोगों के बुनियादी अधिकारों का हनन होता हो, तो उस पर मानवाधिकार आयोग की चिंता स्वाभाविक है। मगर हैरानी है कि किसान आंदोलन को लेकर उसकी चिंता काफी देर बाद सामने आई है।
यह बात सब जानते हैं कि किसान दिल्ली की सरहदों पर नहीं, दिल्ली के भीतर रामलीला मैदान में बैठना चाहते थे। मगर सरकार ने उन्हें दिल्ली में प्रवेश नहीं करने दिया, इसलिए जो जत्थे जिधर से आ रहे थे, उधर ही बैठ गए। फिर जब सरकार ने उनकी मांग नहीं मानी, तो आंदोलन बढ़ता गया। हालांकि केंद्र सरकार किसानों के साथ ग्यारह दौर की बात कर चुकी है, मगर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। जब संसद का मानसून सत्र चल रहा था, तब किसानों ने जंतर मंतर पर समांतर संसद भी चलाई।
अब सरकार की तरफ से कोई पहल भी होती नहीं दिखाई देती, इसलिए आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में भी फैलता जा रहा है। तेज ठंड, धूप, गरमी, बरसात सहते हुए किसान धरनों पर बैठे हैं। मौसम की मार के चलते अब तक तीन सौ से ऊपर किसानों के मारे जाने की बात भी कही जाती है। जब कोरोना की दूसरी लहर के वक्त देश भर में अफरातफरी का आलम था, तब किसानों ने अपने बचाव का इंतजाम खुद किया। जांच और इलाज की सुविधाएं जुटार्इं, कोरोना नियमों के पालन में कोई लापरवाही नहीं बरती। हालांकि तब उनके स्वास्थ्य के प्रति सरकारों की जिम्मेदारी अधिक बनती थी।
किसान आंदोलन से होने वाली परेशानियों की शिकायत अदालतों में भी की गई थी। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कह दिया था कि किसी भी नागरिक को शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन करने के उसके अधिकार से रोका नहीं जा सकता। जहां तक रास्तों में अवरोध की बात है, किसानों ने खुद इसका ध्यान रखा है कि किसी को आने-जाने में बाधा न उपस्थिति हो। बल्कि किसानों को रोकने के नाम पर अवरोध उत्पन्न करने के प्रयास प्रशासन की तरफ से अधिक हुए हैं।
कहीं सड़कों पर गहरे गड््ढे खोदे गए, तो कहीं कीलें गाड़ी गर्इं, कहीं बड़े-बड़े कंटेनर खड़े करके दीवारें बना दी गर्इं। इतनी सारी दिक्कतों-परेशानियों के बावजूद किसान वहां डंटे हुए हैं। अगर आसपास के गांवों और औद्योगिक इकाइयों को किसी प्रकार की परेशानी उठानी पड़ रही है, तो यह सरकारों का दायित्व बनता है कि वे उन्हें दूर करने का प्रयास करें। फिर, किसानों को बार-बार आंदोलन पर अड़े रहने के लिए उकसाने के बजाय उनकी मांगों पर गंभीरता से विचार करे।