इतिहास का निष्पक्ष पुनर्लेखन जरूरी, गलतियों को मान लेना कुछ गलत नहीं

इतिहास का निष्पक्ष पुनर्लेखन जरूरी

Update: 2021-12-25 09:01 GMT
नीरजा माधव। सत्य की खोज एक सनातन और अंतहीन यात्रा है। इस यात्रा की साक्षी रही है हमारी संस्कृति। यही साक्षी भाव इतिहास की आधार भूमि बना। इतिहास लेखन सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक पवित्र और शोधपरक कर्म है। देश और विश्व की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक प्रकृति किस कालखंड में क्या रही, यह जानने के लिए हमें इतिहास का अध्ययन करना पड़ता है। दूसरे मानव समूहों के स्वभाव, सभ्यता, शक्ति और कमजोरियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम दूसरे देशों का भी इतिहास पढ़ते हैं। मानव विकास की प्रारंभिक यात्रा से लेकर 21वीं सदी आते-आते इतिहास लेखन के साथ कई तरह के विवाद जुड़ते चले गए। कहीं तिथियों और कालखंड के साथ जानबूझकर की भयंकर भूलें की गईं तो कहीं तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई। कभी किसी विशेष विचारधारा के प्रभाव में इतिहास लेखन ने अपना दुष्प्रभाव नई पीढ़ियों पर छोड़ा तो कभी किसी अतिवाद ने इतिहास के पन्नों को अपने रंग में रंगा।
इतिहास लेखक की दृष्टि यदि किंचित भी संकीर्ण है तो वह त्रुटिपूर्ण या आंशिक सत्य ही इतिहास में देता है और हम सब जानते हैं कि खंडित दृष्टिकोण से लिखे गए छिन्न-भिन्न इतिहास का भविष्य की पीढ़ियों पर बुरा प्रभाव कुछ अधिक ही पड़ता है। यदि सत्य के साथ कोई रोचक काल्पनिक तथ्य जोड़ दिया जाए तो उसे उत्सुकतावश लोग अधिक पढ़ते हैं और अधिकांश उससे दुष्प्रभावित भी हो जाते हैं। किसी भी राष्ट्र के इतिहास लेखक को निष्पक्ष और राष्ट्रनिष्ठ होना पहली शर्त है, अन्यथा वह अपने इतिहास लेखन द्वारा राष्ट्र के विध्वंस की नींव डाल सकता है।
इतिहास लेखन मात्र लेखन की एक विधा नहीं है, अपितु अतीत का निर्माण है। दुर्भाग्य से हजारों वर्षो के भारतीय इतिहास लेखन में कुछ तत्वों ने भारत के सही और गौरवशाली इतिहास का आधा अधूरा या भग्न रूप ही समाज के सामने रखा। 21वीं सदी के दूसरे दशक तक भारत में इतिहास के पुनर्लेखन की मांग जोर पकड़ने लगी है। अभी हाल में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने वाले कभी देशभक्त नहीं हो सकते। एक अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी यह कह चुके हैं कि इतिहास लेखन में भारतीय महापुरुषों के साथ अन्याय हुआ। अब इस अन्याय को दूर किया जाना चाहिए। यह अत्यंत आवश्यक है।
हमें इतिहास लेखन में अपनी बुराइयों पर पर्दा भी नहीं डालना है, परंतु इतना तो स्पष्ट करना है कि राष्ट्र में उन बुराइयों की जड़ें कहां थीं? अंग्रेजी शासन से पूर्व देश के एक हिस्से में सती प्रथा थी। यह एक अमानवीय प्रथा थी। इतिहास लेखकों ने अपने ग्रंथों में इस कुप्रथा पर जोरदार प्रहार किए, परंतु यदि उन्होंने इसके पैदा होने के कारणों पर भी सम्यक दृष्टि डाली होती तो परिदृश्य कुछ और होता। यदि किसी दशक विशेष या शासक के काल में सती की घटनाएं अधिक हुईं तो उन्हें भी किसी इतिहास ग्रंथ में दर्ज किया जाना चाहिए था।
राष्ट्र में नवजागरण के नाम पर भी इतिहास लिखने की कोशिश की गई। जब भी कोई आक्रांता आया, यहां नवजागरण का ढोल पीटा गया। यह वैसा ही है, जैसे इंग्लैंड में कोई फ्रांस का राजदूत आए और अपने ग्रंथों के हिसाब से इंग्लैंड का विवरण दे और बाद में चलकर उसी विवरण को इंग्लैंड का इतिहास मान लिया जाए। भारतीय इतिहास के साथ भी यही समस्या आई।
आक्रांता या विजयी सेना के साथ कोई आया और अपने विवरणों से भारत का इतिहास तैयार करता रहा और उसे ही बाद में हमारे यहां के इतिहासकार कुछ चटपटे अंदाज में लिखते रहे।
यह एक तथ्य है कि कतिपय इतिहासकारों द्वारा यह भ्रम भी फैलाया गया कि हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव या अस्पृश्यता जैसी कुप्रथा व्याप्त थी, जबकि सत्य तो यह था कि अस्पृश्यता का जातिगत स्वरूप सर्वप्रथम मुस्लिम आधिपत्य वाले क्षेत्रों में पनपा। सिर पर मैला ढोने का काम एक वर्ग विशेष से करवाकर उसे अस्पृश्य बनाया गया।
बाद में इसी अस्पृश्य वर्ग को अंग्रेजी हुकूमत ने दलित जाति के नाम पर समाज की एक विकराल कुप्रथा घोषित किया और भारत के राष्ट्रीय चरित्र को विश्व समाज में कलंकित करने का प्रयास किया। जो लोग भारत की ग्रामीण संस्कृति से परिचित होंगे, उन्हें ज्ञात होगा कि लोग दैनिक क्रिया के लिए खेतों, नदियों, तालाबों आदि के पास जाया करते थे। इसलिए मैला ढोने जैसी सामान्य प्रथा भारतीय समाज में प्राय: न के बराबर थी।
मुगल शासकों के महलों से यह प्रथा विकसित हुई। एक वर्ग को यह कार्य करने के लिए विवश किया गया। इतिहासकारों ने विदेशी शासन के प्रभाव में ही भारतीय समाज, विशेष रूप से हिंदू समाज को हजारों वर्षो से अन्यायरत और शोषक के रूप में प्रचारित किया, जो सत्य से विपरीत था। भारत के स्वभाव को जानने के लिए आवश्यक है कि प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रखा जाए और निष्पक्ष भाव से भारत के इतिहास को पुन: लिखा जाए, क्योंकि इतिहास हमारे अतीत का पुन: निर्माण होता है। इसके साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस समय अन्य देशों में सभ्यता और संस्कृति का विकास भी नहीं हुआ था, तब भारत में देव संस्कृति का निर्माण हो गया था। इस संस्कृति के संपर्क में जब भी कोई विदेशी आता था, वह मुग्ध होकर उसके वशीभूत हो जाता था। इतिहास और गौरवशाली अतीत के साथ उपनिवेशवादियों और साम्राज्यवादियों द्वारा अभद्र छेड़छाड़ केवल भारत में ही नहीं, बल्कि मेक्सिको, पेरू और ब्राजील आदि देशों में भी की गई। इतिहास लिखते समय हमें यह ध्यान देना होगा कि भारतीय जीवन दर्शन न किसी पाश्चात्य दर्शन का अनुगामी है और न ही केवल शब्दों पर आश्रित है, बल्कि वह अनुभूतियों पर आश्रित है।
(लेखिका साहित्यकार हैं)
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