वनों का दोहन: दुनिया के सामने सीख के रूप में सामने आया चिपको आंदोलन
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय बनाने की तरफ सरकार के कदम आगे बढ़े हैं।
1970 के दशक की शुरुआत में उत्तराखंड के सर्वोदय कार्यकर्ता शराबबंदी के लिए आंदोलन चला रहे थे और उन्होंने सामाजिक समानता को लेकर अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को चारधाम के मंदिरों में प्रवेश करवाया था। बापू के पद चिह्नों पर चलने वाले इन कार्यकर्ताओं के सामने ही इसी दौरान वनों के व्यावसायिक दोहन के लिए ठेके दिए जाने लगे, तो 1973 में इसके विरोध में चिपको आंदोलन दुनिया के सामने एक सीख के रूप में उभर कर आया। अप्रैल से दिसंबर 1973 के बीच सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन दांव पर लगाकर जंगल काटने वाले ठेकेदारों का खुलकर विरोध किया। उस समय ऋषिकेश के एक ठेकेदार जगमोहन भल्ला को 680 हेक्टेयर से अधिक जंगल की नीलामी लगभग पांच लाख रुपये में कर दी गई थी और इलाहाबाद में स्थित स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी साइमंड्स को कटान का ठेका दिया गया था।
चमोली से लगभग 60 किलोमीटर दूर फाटा -रामपुर के जंगलों में साइमंड कंपनी अंगू के पेड़ों को काटने के लिए पहुंच गई थी। अंगू का पेड़ बहुत मजबूत होता है, जिससे खेल सामग्री के अलावा अन्य मजबूत फर्नीचर बनाए जा सकते हैं। उत्तराखंड में इसका इस्तेमाल कृषि औजार के रूप में होता है। सरकार ने वन विभाग के जरिये उत्तराखंड और बाहर के ठेकेदारों को बड़े पैमाने पर राजस्व के लिए वनों की नीलामी प्रारंभ कर दी थी। बड़े पैमाने पर चीड़, देवदार, अंगू, खरसू, मौरु आदि के जंगल कटने लगे। तब भागीरथी, अलकनंदा, पिंडर, कोसी, मंदाकिनी, बालगंगा, भिलंगना के उद्गम तक पहुंचने के लिए आज की तरह पक्की सड़कें नहीं थीं। इसलिए जंगल के ठेकेदार 1970- 80 के बीच में वनों की अंधाधुंध कटाई करके नदियों के बहाव के साथ लकड़ियों के स्लीपर हरिद्वार तक ले गए। इस अमूल्य वन संपदा का इस्तेमाल रेलवे लाइन बिछाने के लिए भी किया गया है।
लेखक की उम्र तब 13-14 साल की थी। गांवों से होकर जंगल को काटने वाले मजदूरों का तांता लगा रहता था। वे बड़ी मात्रा में अपने खाने-पीने की सामग्री के साथ जंगल काटने के लिए आरी- कुल्हाड़ी पीठ पर ले जाते थे। कटान करने वाले मजदूर अधिकांश हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, नेपाल और तराई क्षेत्र से आते थे। जंगल से लोगों की घास, लकड़ी, हकूक प्रभावित हो रहे थे। उस समय समाज सुधार के नाम पर लोगों के बीच सिर्फ सर्वोदय कार्यकर्ता ही गांव-गांव पहुंचते थे। इसी दौर में लोगों ने जब गांव से शराबबंदी का काम भी किया, तो फिर वही कार्यकर्ता वनों के व्यावसायिक दोहन के खिलाफ गांव के बीच में चौपाल करने लगे। गांव की यही ताकत चिपको के लिए संजीवनी का काम कर गई।
सर्वविदित है कि उत्तराखंड में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन, सुंदरलाल बहुगुणा, सोहनलाल भूभिक्षु, मान सिंह रावत, भवानी भाई, राधा बहन, चंडी प्रसाद भट्ट, घनश्याम सैलानी सुरेंद्र दत्त भट्ट, विमला बहुगुणा और उनके साथ दर्जनों कार्यकर्ता समाज के बीच में जिस तपस्या के बल पर आगे बढ़े, वही उनके लिए चिपको के रूप में जन कारवां बनता गया।
चिपको आंदोलन के प्रसिद्ध नेता चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा कहते रहे कि जंगल यहां के सैनिक हैं, इसलिए इन पर कुल्हाड़ी चलाने से पहले गंभीरतापूर्वक गौर करना चाहिए। इसी दौरान चमोली जिले के रामपुर और फाटा में साइमंड कंपनी द्वारा काटे जा रहे पेड़ों का जबरदस्त विरोध प्रारंभ हुआ था। यही कंपनी जोशीमठ के आगे रैणी गांव के जंगल में भी पहुंच गई थी, जहां पर गांव की महिला अध्यक्ष गौरा देवी ने 26 मार्च, 1974 को लगभग तीन दर्जन महिलाओं के साथ मिलकर वन काटने वाले ठेकेदार को अपने जंगल से बाहर खदेड़ दिया था। गौरा देवी को प्रेरणा चंडी प्रसाद भट्ट और उनकी टीम से ही मिली थी। रैणी की इस सफल घटना के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने वनस्पतिशास्त्री वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था। दो वर्ष बाद इस समिति की रिपोर्ट आई तो इसके पश्चात अलकनंदा के ऊपरी क्षेत्रों में लगभग 1,200 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में व्यावसायिक कटाई पर 10 साल के लिए प्रतिबंध लग गया था। लेकिन सरकार का यह निर्णय पूरे उत्तराखंड के लिए पर्याप्त नहीं था। 1972 से 74 के बीच में उत्तरकाशी में वयाली के जंगल को बचाने के लिए कम्युनिस्ट नेता कमला राम के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन चलाया गया था।
सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आंदोलन के केंद्रबिंदु थे। नौ जनवरी, 1979 को बडियारगढ़ में विरोध के दौरान बहुगुणा को जेल में डालने से चिपको आंदोलन की आवाज पूरे देश-दुनिया में पहुंचने लगी। दूसरी ओर चमोली जिले में चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में लगातार एक के बाद एक वन क्षेत्र से ठेकेदारों को वापस जाना पड़ रहा था। लगभग एक दशक तक चले आंदोलन के बाद सन 1981 में बहुगुणा ने हजार मीटर से ऊपर वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए अनिश्चितकालीन अनशन किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आठ सदस्यीय समिति बनाकर 15 वर्षों तक के लिए वनों की व्यवसायिक कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसे पूरे मध्य हिमालय के लिए एक राहत की तरह महसूस किया गया।
चिपको आंदोलन के कारण दुनिया में वन संरक्षण के प्रति एक नई चेतना पैदा हुई है। सरकार ने 1988 में वन अधिनियम बनाया, इसके साथ ही वन्यजीव और जैव विविधता को लेकर अनेकों कानून बनाए गए हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय बनाने की तरफ सरकार के कदम आगे बढ़े हैं।
सोर्स: अमर उजाला