ग्लासगो कॉप सम्मेलन से उम्मीदें

जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ दी हैं। भारत में ग्लाेबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है।

Update: 2021-11-02 01:50 GMT

आदित्य नारायण चोपड़ा: जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ दी हैं। भारत में ग्लाेबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की गति तेज हुई है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायरमेंट एंड डवलपमेंट की हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। गरीब लोग प्राथमिक विपदाओं का दंश नहीं झेल पा रहे और अपनी जमीनों से उखड़ रहे हैं। गरीब लोग सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर चुके हैं। विस्थापन लगातार बढ़ रहा है। महानगर और घनी आबादी वाले शहर गंभीर प्रदूषण के शिकार हैं। दिल्ली को ही ले लीजिए जहां दिवाली से पहले ही हवा विषाक्त हो चुकी है। यह स्थिति तब है जबकि इस बार प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे नहीं चले हैं। चिंता की बात तो यह भी है कि बीते साल भारत में प्राकृतिक आपदाओं जैसे बे-मौसमी बारिश, बाढ़, सूखे, चक्रवाती तूफानों की वजह से 87 अरब डॉलर का नुक्सान हुआ है। हमने उत्तराखंड में आई​ विनाशकारी बाढ़ और उसमें हुई तबाही के भयावह दृश्य देखे हैं। इस तरह की स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में प्राकृतिक आपदाओं ने गति पकड़ रखी है। स्काटलैंड के ग्लासगो शहर में विश्व जलवायु सम्मेलन की शुरूआत हो चुकी है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन समेत दुनिया के विभिन्न देशों के नेता भाग ले रहे हैं। ग्लासगो में 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन (कॉप-26) में भारत जलवायु परिवर्तन न्याय के लिए जोर दे रहा है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती दोतरफा है, पहली बाहरी, भू राजनैतिक क्षेत्र और दूसरी देश के भीतर। देश के भीतर भू-स्खलन के चलते अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड, हिमाचल जैसे दो राज्यों तक सीमित नहीं बल्कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, सिक्किम और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं।हमने पर्यावरण विशेषज्ञ की सलाह को खारिज करते हुए परिस्थिति और स्थलाकृति पर गंभीरता से विचार किये बिना विकास और आर्थिक गतिविधियों को प्राथमिकता दी। जगह-जगह पनबिजली प्रोजैक्ट शुरू कर दिये गए। पहाड़ियों के बीच सुरंगें बनाई गई। नदियों के अतिक्रमण और बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों और नदियों के कैचमेंट एरिया में इमारत खड़ी कर दी गई। दुनियाभर में बस्तियों के विस्तार, बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र आदि ग्रामीण आजीविका पर बढ़ते खतरे सहित कई कारणों से आपदाओं का जोखिम बढ़ गया है।वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं जागी तो 21वीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। रोम में सम्पन्न हुए जी-20 सम्मेलन में सभी देश धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने पर राजी हुए हैं। इसके अलावा उत्सर्जन को नियंत्रण करने के तथ्य ​निर्धारित किये गए हैं। जी-20 ने तो शताब्दी के मध्य तक कार्बन न्यूट्रेलिटी तक पहुंचने का वादा भी किया है। ग्लासगो सम्मेलन में भी भारत की रणनीति धनी देशों पर सौ अरब डालर की आर्थिक सहायता और खाद्य तकनीक के हस्तांतरण का दबाव बनाए रखने की रहेगी। अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य विकासशील और गरीब देशों पर थोपने लगे हैं। अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी काेयले से चलने वाले बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे। डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका 2017 में पेरिस समझौते से अपने हितों के कारण पीछे हट गया था। बाइडेन के सत्ता में आने के बाद ​अमेरिका फिर इससे जुड़ गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 13 दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन में ठोस एक्शन प्लान सामने आएगा। पर्यावरण अब अमीर और गरीब का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि मानवता को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। पेरिस सम्मेलन में दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए वैश्विक तापमान को डेढ़ से दो डिग्री तक रोकने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन इससे वैश्विक लक्ष्य को प्राप्त करने में ज्यादा मदद मिलती नजर नहीं आ रही क्योंकि इस सदी के अंत तक दुनिया का तापमान 2.7 डिग्री सेल्शियस बढ़ सकता है। भारत का तर्क है कि उसका प्रति​ व्यक्ति​ उत्सर्जन बहुत कम है। इसलिए वह नेट जीरो का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए अभी तैयार नहीं है। लेकिन भारत ने 2030 तक उत्सर्जन में 2005 की तुलना में एक तिहाई कटौती करने, अपनी 40 फीसदी बिजली को अक्षय ऊर्जा और कार्बन सोखने के लिए करोड़ों पेड़ लगाने का वादा किया है। पर्यावरण बचाने के लिए दुनिया को एकजुट होकर आगे बढ़ना होगा। विकसित देशों को जलवायु वित्तीय सहायता को इमानदारी से देना होगा

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