चुनावी मौसम : विपक्ष को एक अटल की जरूरत

खुद को भाजपा के विश्वसनीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना होगा।

Update: 2022-01-25 01:45 GMT

युद्ध के मैदान में अक्सर, सेना और हथियारों के आकार से अधिक साहस, समझदार रणनीति और प्रेरक नेतृत्व काम आता है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब साहसी नेताओं ने हार के जबड़े से जीत छीन ली। मई, 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने इसे सच साबित किया था। उनके सामने थे, मुखर वक्ता और ऊर्जा से लबरेज लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी, उनके सयाने संगठनकर्ता सहयोगी अमित शाह, जमीन पर मौजूद आरएसएस का भरपूर संसाधन तथा केंद्र सरकार की ताकत।

इससे अप्रभावित ममता ने प्लास्टर चढ़ी टांग के साथ व्हील चेयर पर बैठकर प्रचार किया और 'खेला होबे' की थीम पर अभियान चलाकर अपराजेय दिख रही मोदी-शाह की जोड़ी को परास्त कर दिया। उन्होंने मीडिया के गढ़े मिथक को ध्वस्त कर तीसरी बार जीत दर्ज की। भाजपा को हराने की महत्वाकांक्षा रखने वाले विपक्षी दल इसका अनुसरण कर सकते हैं। बशर्ते कि वे अपने मतभेदों को खत्म करें, अपने अहंकार को त्याग दें और जमीनी सच्चाई को स्वीकार करते हुए इस तर्ज पर नेतृत्व को स्वीकार करें कि, जो जीता वही सिकंदर, तभी वह भाजपा को चुनौती दे सकेंगे। आइये जरा विपक्षी दलों के नेताओं पर गौर करते हैं।
नवीन पटनायक ओडिशा के सबसे लंबा कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री हैं, और उनका पांचवा कार्यकाल चल रहा है। उनके बीजू जनता दल ने 2014 में जब मोदी ने दिल्ली की अपनी पारी शुरू की थी, राज्य की 20 में से 21 लोकसभा सीटें जीती थीं। लेकिन 2019 में उनकी सीटें घटकर 12 रह गईं। उन्होंने पंचायत में महिलाओं के लिए पचास फीसदी आरक्षण शुरू किया और पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी की 33 फीसदी टिकटें महिलाओं को दी थी। राज्य की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ी है और प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है, लेकिन ओडिशा के कई हिस्से आज भी भीषण गरीबी से जूझ रहे हैं।
76 वर्षीय नवीन पटनायक ने लंबी पारी के बावजूद खुद को ओडिशा तक सीमित रखा है। एम. के. स्टालिन ने हालांकि तमिलनाडु में राजनीतिक जगह मजबूती से बनाई है, लेकिन उनका प्रभामंडल एमजीआर या करुणानिधि या जयललिता जैसा नहीं है। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव उभरते हुए मजबूत नेता हैं। तीनों का अपने-अपने राज्य में काफी दबदबा और राजनीतिक महत्व है, लेकिन उनमें से कोई भी राष्ट्रीय नेता नहीं है।
महाराष्ट्र के तीन बार मुख्यमंत्री रहे 81 वर्षीय शरद पवार केंद्रीय रक्षा और कृषि मंत्री भी रहे हैं। वह आज देश के वरिष्ठतम नेताओं में से हैं, जो इंदिरा गांधी के समय से राजनीति में हैं। उनके पास अनुभव है और वह मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन उनका समय बीत चुका है। अपने राजनीतिक करिअर के इस मोड़ पर वह किंग मेकर तो हो सकते हैं, किंग नहीं। अखिलेश यादव अपने पिता की छाया से बाहर निकल आए हैं, और अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चुनौती दे रहे हैं।
हालांकि उन्होंने तीन कैबिनेट मंत्रियों और एक दर्जन विधायकों को भाजपा से सपा में शामिल कर भाजपा नेतृत्व को बड़ा झटका दिया है, लेकिन उनके छोटे भाई की पत्नी अपर्णा यादव के भाजपा में शामिल होने से सपा का उत्साह ठंडा पड़ गया। विकास के एजेंडे को दरकिनार कर भाजपा और सपा दोनों ही अन्य पिछड़ा वर्ग की कुछ निश्चित जातियों और दलित समुदायों को लुभाने में जुटी हुई हैं। 2024 में अखिलेश की क्या भूमिका होगी, यह इस पर निर्भर होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है।
बसपा सुप्रीमो मायावती असमान्य रूप से शांत हैं, शायद भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में मुकदमे की आशंकाएं उनका पीछा नहीं छोड़ रही हैं। राजधानी दिल्ली की सांविधानिक सीमाओं में बंधे होने, जहां उपराज्यपाल ही वास्तविक प्रशासनिक प्रमुख हैं, और गृह मंत्रालय द्वारा लगातार पर कतरे जाने के बावजूद अरविंद केजरीवाल अपने ढंग की राजनीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी जनकेंद्रित नीतियों के कारण आप का एक आधार बना हुआ है। इसके अलावा, उन्हें अपनी अपील को व्यापक बनाने और अपनी हिंदू साख को रेखांकित करने के लिए भाजपा की विचारधारा का अनुसरण करने से परहेज नहीं है।
आप पंजाब और गोवा में एक ताकत के रूप में उभर सकती है। ममता के अलावा वही एक मात्र ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने मोदी-शाह की जोड़ी को एक बार नहीं, बल्कि दो बार हराया है! 136 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अभी तीन राज्यों में सरकारें हैं और तीन अन्य राज्यों में वह कनिष्ठ सहयोगी है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अब भी उसके पास बीस फीसदी वोट है। राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में आश्चर्यजनक रूप से नरेंद्र मोदी के बाद राहुल गांधी दूसरे पसंदीदा नेता के रूप में उभरे हैं।
दुर्भाग्य से, पिछले दस वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी पर उनके तीखे हमलों और ऊर्जावान चुनाव अभियानों ने उनकी पार्टी की मदद नहीं की है, जिसे पश्चिम बंगाल और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में शून्य और 2019 में उत्तर प्रदेश में एक अकेली संसदीय सीट मिली। साफ है कि वह कांग्रेस का दांव जीतने वाला घोड़ा नहीं हैं। भारतीय लोकतंत्र को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है। सिर्फ सपने देखने से कुछ नहीं होगा। इसके लिए विपक्षी दलों को साथ आना होगा और खुद को भाजपा के विश्वसनीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना होगा।


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