उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव, क्यों सत्तारूढ़ दलों को ही मिलती है जीत की चाभी?

हाल ही में उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए

Update: 2021-07-05 13:38 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| हाल ही में उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए, जिसमें भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने 67 सीटों पर जीत हासिल की. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है, उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का इतिहास रहा है कि यहां जिसकी सत्ता होती है उसी की ज्यादातर जिला अध्यक्ष चुने जाते हैं. सीधी सी बात है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस. 2015 में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) की सरकार थी और प्रदेश के मुखिया अखिलेश यादव थे, तब भी जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए थे और उसमें 60 से ज्यादा सीटों पर समाजवादी पार्टी का कब्जा रहा था. जब बहुजन समाज पार्टी (BSP) की सरकार सरकार थी और प्रदेश के मुखिया थीं मायावती (Mayawati) तब भी यूपी का यही हाल था.

दरअसल यह उत्तर प्रदेश की राजनीति की परिपाटी बन चुकी है, कि जिसकी सरकार होगी ज्यादातर जिलों में उसके जिला अध्यक्ष नियुक्त होंगे. चाहे उसके लिए साम, दाम, दंड, भेद किसी का भी सहारा लेना पड़े. कई बार चुनाव के दौरान खबरें आती हैं कि फलां पार्टी ने इतने पैसे बांट कर जिला अध्यक्ष का चुनाव जीता. हालांकि यह आरोप केवल एक पार्टी पर नहीं लगते बल्कि जिसकी भी सत्ता में पार्टी होती है उस पर लगते हैं. पैसे बांटने तक के आरोप तो पार्टियों पर आरोप लगते ही हैं, इसके साथ ही आरोप लगते हैं कि जिला पंचायत सदस्यों को डरा धमकाकर यहां तक कि उनका अपहरण करके भी अपने पक्ष में वोट डलवाया जाता है.
उत्तर प्रदेश में ऐसी व्यवस्था बनी क्यों?
सबसे पहले आप चुनाव को समझिए कि जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के लिए किया क्या जाता है? दरअसल पंचायती राज व्यवस्था की तीन परतें होती हैं, पहला गांव, दूसरा प्रखंड और तीसरा जिला जबकि तीनों स्तरों पर वार्ड सदस्य सीधे चुने जाते हैं. जैसे कि प्रधान, ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष. हालांकि जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख यहां अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है. यानि कि जो सदस्य जनता चुनती है वह जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख चुनते हैं. उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव के दौरान किसी राजनीतिक दल के प्रतीक का उपयोग नहीं किया जाता है. यानि जनता को पता होता है कि यह जिला पंचायत सदस्य किस पार्टी का सपोर्टर है या इसे किस पार्टी का सपोर्ट है, लेकिन पार्टी का सिंबल इसमें नहीं लगा होता है.
जिला पंचायत सदस्यों के खरीद-फरोख्त की और उनसे जबरन अपने पक्ष में वोट करा लेने की बात इसी लूप होल का नतीजा है. क्योंकि जब कोई जिला पंचायत सदस्य किसी पार्टी के सिंबल पर चुनाव नहीं लड़ता तो वह स्वतंत्र होता है कि जिसे चाहे उसे जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए वोट करे. ना इसमें दल बदल कानून लागू होते हैं ना पार्टी की कोई भूमिका होती है. यही वजह है सत्ताधारी दल सदस्यों को खरीद लेते है या फिर दबंगई दिखा कर अपने पक्ष में वोट डलवा लेते हैं.
निर्विरोध जीत जाते हैं जिला पंचायत के अध्यक्ष
उत्तर प्रदेश के 2021 के जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में 38 जिला अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए. इसी तरह 2015 में जब अखिलेश यादव की सरकार थी तब 22 जिला अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए थे. यह प्रक्रिया दशकों से चली आ रही है. निर्विरोध इस लिए जीत जाते हैं क्योंकि कोई सामने खड़ा ही नहीं होता या तो डर के मारे नहीं खड़ा होता या फिर धन के बल पर किसी को खड़ा होने नहीं दिया जाता. यानि सबको खरीद लिया जाता है. समाजवादी पार्टी मात्र एक सीट पर निर्विरोध जीती है और वह एक सीट है इटावा का जहां से मुलायम सिंह यादव के पोते अंशुल यादव ने जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव निर्विरोध जीता है. यह दूसरी बार है जब अंशुल यादव ने यहां से जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीता है. लेकिन खास बात यह है कि 1990 से यह जिला पंचायत अध्यक्ष की सीट यादव परिवार के पास ही रही है.
करोड़ों में होता है खर्च
एक जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने के लिए कई करोड़ रुपए खर्च होते हैं और यह सब कुछ खुले तौर पर होता है लेकिन शासन-प्रशासन इसमें आंखें मूंदे रहता है. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक स्टोरी के मुताबिक 2015 में एक जिला पंचायत अध्यक्ष सीट के लिए लगभग 5 से 10 करोड़ रुपए तक खर्च हुए थे, वहीं एक ब्लॉक प्रमुख सीट के लिए लगभग 1 से 3 करोड रुपए तक खर्च हुए थे. तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो एक जिला पंचायत अध्यक्ष का खर्च एक लोकसभा उम्मीदवार से कहीं अधिक होता है और एक ब्लाक प्रमुख का उम्मीदवार एक विधानसभा के उम्मीदवार से कहीं अधिक खर्च करता है.
सत्ता बदलते ही बदल जाते हैं जिला अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख
इतने पैसे खर्च करने के बावजूद भी 5 साल तक आप जिला अध्यक्ष या ब्लाक प्रमुख बने रहें, इसकी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि जैसे ही सत्ता बदलती है वैसे ही जिला अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है. 2017 में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार उत्तर प्रदेश में आई तो कुछ ही महीनों के भीतर ही हर चौथे जिले में जिला अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख बदल दिए गए. उदाहरण के तौर पर ले लीजिए 2015 में जब अखिलेश यादव की सरकार थी उस वक्त गोंडा में जिला अध्यक्ष चुनी गई अखिलेश यादव की कैबिनेट में मंत्री स्वर्गीय विनोद सिंह की पत्नी इसके साथ ही उनके दो भतीजे ब्लाक प्रमुख बने.
लेकिन जैसे ही 2017 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई वैसे ही विनोद सिंह की पत्नी और उनके दोनों भतीजों को इस्तीफा देना पड़ा और उनकी जगह बीजेपी के सांसद बृजभूषण सिंह की पत्नी को जिला अध्यक्ष चुना गया और उनके दो रिश्तेदारों को ब्लॉक प्रमुख बना दिया गया. 2007 और 2012 में भी कुछ ऐसी ही घटना हुई थी, जब बहुजन समाज पार्टी की सरकार के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार आई थी


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