चुनाव आयोग का निष्पक्ष रुख

किसी भी लोकतान्त्रिक देश की परिपक्वता इस बात से नापी जाती है कि चुनावों के समय वहां सार्वजनिक बहस का स्तर क्या होता है।

Update: 2021-04-15 16:30 GMT

Aditya Chopra | किसी भी लोकतान्त्रिक देश की परिपक्वता इस बात से नापी जाती है कि चुनावों के समय वहां सार्वजनिक बहस का स्तर क्या होता है। इसके साथ ही राजनीतिक दलों की सोच का पैमाना चुनावों में उनके द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों से तय होता है। भारतीय संविधान में चुनाव आयोग को इसीलिए बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है जिससे यह राजनीतिक दलों की नकेल कस कर रखे और उन्हें स्तरहीन विमर्श के स्तर तक न जाने दे। चुनाव आचार संहिता का मतलब भी यही है कि अनर्गल प्रलाप करके मतदाताओं को न बहकाया जाये। इसका अर्थ यह निकलता है कि राजनीतिक विमर्श धर्म, सम्प्रदाय व जाति-बिरादरी से ऊपर उठ कर केवल राजनीतिक विचारशीलता के दायरे में रहे परन्तु प. बंगाल के चुनावों में शुरू से ही हमें जिस प्रकार रचनात्मक मुद्दों का अभाव नजर आ रहा है वह गंभीर सवाल है क्योंकि इस राज्य की राजनीति आजादी के बाद से ही विचारमूलक रही है। यह राज्य विभिन्न राजनीतिक दर्शनों का अन्वेषक रहा है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि बंगाल की महान संस्कृति के साये में मतदाताओं का परिचय उनके धर्म या मजहब अथवा जाति से न होकर केवल बंगाली मानुष से रहा है। मौजूदा चुनावों में यह विशाल दृष्टि कहीं तंग नजर आ रही है और इस प्रकार आ रही है कि राज्य की मुख्यमन्त्री व तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा सुश्री ममता बनर्जी को स्वयं कहना पड़ रहा है कि मुसलमान मतदाता अपना मत न बंटने दें और एकजुट होकर वोट डालें।


दूसरी तरफ नन्दीग्राम से ममता दी के खिलाफ खड़े हुए भाजपा प्रत्याशी शुभेन्दु अधिकारी कह रहे हैं कि ममता दी को दिया गया वोट 'मिनी पाकिस्तान' को दिया गया वोट होगा परन्तु इससे भी ऊपर दो दिन पहले कूचबिहार के सीतलाकुची विधानसभा क्षेत्र में एक पोलिंग बूथ पर सुरक्षा कर्मियों पर हमला करने के जवाब में भीड़ पर गोली चलाने पर चार नागरिकों की मृत्यु को भाजपा नेता राहुल सिन्हा ने जायज करार तक दे दिया और कहा कि वहां चार नहीं बल्कि आठ लोग मारे जाने चाहिए थे। चुनाव आयोग ऐसी टिप्पणी पर कभी शान्त नहीं बैठ सकता क्योंकि वह अपने संवैधानिक दायित्व से इस प्रकार बन्धा हुआ है कि राज्य की प्रशासन व्यवस्था से लेकर कानून के शासन में आम आदमी का विश्वास किसी भी तरह डगमगाने न पाये। अतः आयोग ने सिन्हा को बिना कोई नोटिस दिये ही 48 घंटे के लिए चुनाव प्रचार से बाहर कर दिया। जबकि आयोग ने ममता दी की टिप्पणी पर उन्हें बाकायदा नोटिस जारी करके पूछा था कि इस मामले में उनकी क्या सफाई है। ममता दी द्वारा दिये गये जवाब से सन्तुष्ट न होने पर चुनाव आयोग ने उन पर 24 घंटे तक चुनाव प्रचार न करने का प्रतिबन्ध लगाया। इससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि आयोग बिना किसी राग-द्वेष के अपना कार्य करना चाहता है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस लगातार आयोग पर एक पक्षीय होने का आरोप लगा रही है परन्तु ताजा हालात सामने हैं। इसके साथ ही अधिकारी को चुनाव आयोग ने नोटिस जारी किया और पूछा कि वह बतायें कि उनका मिनी पाकिस्तान को वोट देने से क्या आशय है तो उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की और भविष्य में इस प्रकार की कोई गलती न करने का आश्वासन दिया। हालांकि नन्दीग्राम में मतदान पूरा हो चुका है परन्तु ममता दी ने जिस प्रकार चुनाव आयोग की कार्रवाई के विरोध में एक दिन का धरना दिया उसे उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि आयोग ने अपने दायरे से बाहर जाकर कोई कार्रवाई नहीं की थी। इसके साथ यह भी गंभीर मुद्दा है कि राजनीतिक दलों के नेता चुनाव जीतने के चक्कर में क्यों बाजारू भाषावली का सहारा लेकर लोगों को उनके असली मुद्दों से भटकाने का प्रयास करते हैं?

भारत का संविधान त्रिस्तरीय प्रशासनिक प्रणाली की स्थापना की बात करता है जिसमें केन्द्र सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय नगर पालिकाएं आती हैं। इन तीनों के चुनावों के मुद्दे भी अलग-अलग होते हैं परन्तु देखने में अब यह आने लगा है कि सदन मूलक चुनावी मुद्दों के स्थान पर स्थानीय मुद्दे इस प्रकार प्रभावी कर दिये जाते हैं कि मतदाता भ्रम में पड़ जाता है कि वह किस सदन के लिए अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव कर रहा है। यदि प. बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं से एकजुट होने को कहा जा रहा है तो साफ है कि राज्य के वे मुद्दे गायब हो चुके हैं जिनका सम्बन्ध राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से होता है। चुनावों में हिन्दू या मुसलमान का सवाल खड़ा करना स्वयं में भारत की संवैधानिक हैसियत को नकारना है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। अतः ममता दी को बोलने से पहले जरूर यह सोचना चाहिए था कि वह जो कुछ कह रही हैं उसका प्रतिफल क्या निकलेगा? बंगाल तो भारत की वह महान भूमि है जहां पैदा हुए मनीषियों ने देशों तक का भेद मिटा डाला। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने बंग भंग आन्दोलन के खिलाफ जो वन्दे मातरम् गीत लिखा था उसे आजादी के बाद पूरे भारत ने अपनाया और स्वतन्त्रता के आंदोलन में यह सेनानियों का प्रेरणा स्रोत बना, वहीं गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का लिखा 'आमार शोनार बांग्ला' 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने पर वहां का राष्ट्रगान बना। यह सब बंगाल की महान संस्कृति की ही तासीर है जो हिन्दू-मुसलमान को नहीं बल्कि केवल इंसान को पहचानती है। 
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