चुनाव आयोग का निष्पक्ष रुख
किसी भी लोकतान्त्रिक देश की परिपक्वता इस बात से नापी जाती है कि चुनावों के समय वहां सार्वजनिक बहस का स्तर क्या होता है।
Aditya Chopra | किसी भी लोकतान्त्रिक देश की परिपक्वता इस बात से नापी जाती है कि चुनावों के समय वहां सार्वजनिक बहस का स्तर क्या होता है। इसके साथ ही राजनीतिक दलों की सोच का पैमाना चुनावों में उनके द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों से तय होता है। भारतीय संविधान में चुनाव आयोग को इसीलिए बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है जिससे यह राजनीतिक दलों की नकेल कस कर रखे और उन्हें स्तरहीन विमर्श के स्तर तक न जाने दे। चुनाव आचार संहिता का मतलब भी यही है कि अनर्गल प्रलाप करके मतदाताओं को न बहकाया जाये। इसका अर्थ यह निकलता है कि राजनीतिक विमर्श धर्म, सम्प्रदाय व जाति-बिरादरी से ऊपर उठ कर केवल राजनीतिक विचारशीलता के दायरे में रहे परन्तु प. बंगाल के चुनावों में शुरू से ही हमें जिस प्रकार रचनात्मक मुद्दों का अभाव नजर आ रहा है वह गंभीर सवाल है क्योंकि इस राज्य की राजनीति आजादी के बाद से ही विचारमूलक रही है। यह राज्य विभिन्न राजनीतिक दर्शनों का अन्वेषक रहा है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि बंगाल की महान संस्कृति के साये में मतदाताओं का परिचय उनके धर्म या मजहब अथवा जाति से न होकर केवल बंगाली मानुष से रहा है। मौजूदा चुनावों में यह विशाल दृष्टि कहीं तंग नजर आ रही है और इस प्रकार आ रही है कि राज्य की मुख्यमन्त्री व तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा सुश्री ममता बनर्जी को स्वयं कहना पड़ रहा है कि मुसलमान मतदाता अपना मत न बंटने दें और एकजुट होकर वोट डालें।