Editorial: इंसानी शरीर को रसायन शास्त्र की एक अनूठी प्रणाली कह सकते हैं। यह रसायन विज्ञान इंसान के विचार और नजरिए के आधार पर निर्धारित करता है कि कौन जीवन में मिठास और अमृत का अनुभव करेगा और कौन कड़वाहट या विष का। जो लोग सकारात्मक विचारधारा के होते हैं, उनका अपने और दूसरों के जीवन के प्रति भी दृष्टिकोण अच्छा और खुशियों से भरा होता है । जब कोई सकारात्मक कार्यों से जुड़ता है, जैसे दूसरों की खुशी में जश्न मनाना, समाज के हित में कार्य करना, दूसरों की भावनाओं को सम्मान देना, स्वयं से पहले दूसरों के प्रति फिक्रमंद होना और खयाल रखना, और हर तरह के सकारात्मक विचारों को बढ़ावा देना, तब शरीर का रसायन खुद ही सद्भाव की ओर स्थानांतरित हो जाता है । यह सकारात्मक परिवर्तन न केवल भौतिक शरीर का रखरखाव और मरम्मत करता है, बल्कि दीर्घायु, दर्द रहित जीवन, आनंद और तमाम अन्य लाभकारी नतीजों को भी बढ़ावा देता है।
इसमें संदेह नहीं कि प्रेम, दया और करुणा की मानसिकता इंसान की जिंदगी में एक प्रकार का उपचार प्रभाव पैदा करती है। इनसे हमारी अपनी भलाई पनपती और बढ़ती है। हालांकि जब-जब हमारे जेहन में लालच, क्रोध, ईर्ष्या या सत्ता की लालसा जैसे नकारात्मक विचार छाते हैं, तब-तब हमारे शरीर का रसायन विषाक्त हो जाता है। बेशक हम अच्छे या बुरे कर्मों में शामिल हों या न हों, लेकिन ऐसी नकारात्मक भावनाएं हमारे भीतर अशांति और फिर आंतरिक विष उत्पन्न करते हैं । इनके चलते दुख, चिंता, निराशा, झगड़ा, विवाद, बीमारी और अवसाद होता है । ऐसी विनाशकारी सोच हमारी शांति भंग कर देती है। साथ-साथ असंतुलन और पीड़ा में घसीट ले जाती है। तय है कि हमारे शरीर का रसायन हमारे दिमाग से संचालित होता है। जब हम सकारात्मकता, दयालुता और आत्म- नियंत्रण चुनते हैं, तो हम संपूर्ण और आनंदमय जीवन विकसित करते हैं। ईश्वर या प्रकृति ने भी इंसान को जीवन के उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए केवल सकारात्मक विचार बनाए रखने के लिए नियुक्त किया है। इस दिव्य मार्गदर्शन को अपनाने से यह सुनिश्चित होता है कि हम अपने वास्तविक उद्देश्य के अनुरूप जीवन जी रहे हैं और इसके साथ-साथ इच्छित जीवन की परिपूर्णता का अनुभव कर रहे हैं।
इसीलिए कहते हैं कि खुद से लड़ना सबसे कठिन लड़ाई होती है। हमारा सबसे बड़ा दुश्मन स्वयं का मन है। विचारों की अनंत धारा में हम कभी-कभी खुद को खो देते हैं । नकारात्मक विचार हमें कमजोर करते हैं, हमारे सकारात्मक विचारों पर हावी हो जातेहैं और हम खुद से ही लड़ते रह जाते हैं । ऐसे अंतर युद्ध या द्वंद्व का अंत तभी हो सकता है, जब हम अपने विचारों को छांटें और उन्हें सही दिशा में मोड़ें। अपने अंदर की लड़ाई से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका है कि अपने विचारों को सकारात्मक बनाया जाए। हमें खुद पर विश्वास करना चाहिए और यह मानना चाहिए कि हमारे जीवन चक्र में किसी दूसरे से ज्यादा बनाने - बिगाड़ने में खुद का कसूर ही है, दूसरे का शून्य भी है। जीवन की हर समस्या का हल इंसान ढूंढ़ सकता है। अपने विचारों को दूषित होने से बचाना सीखना चाहिए और नकारात्मकता को अपने जीवन से बाहर करना चाहिए ।
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जैसे लोहे का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, सिवा उसके अपने जंग के, वैसे ही, किसी इंसान का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन उसकी अपनी सोच ही उसे बिगाड़ सकती है। विख्यात ब्रिटिश दार्शनिक फ्रांसिस बेकन की राय में, इंसान अपने स्वभाव के मुताबिक सोचता है, कायदे के मुताबिक बोलता है और रिवाज के मुताबिक व्यवहार करता है। एक सकारात्मक दृष्टिकोण से आशावादी सोच का जन्म होता है। जब हमारी मानसिकता सकारात्मक होती है, तब हम रचनात्मक रवैया रखते हैं। अपने साथ- साथ दूसरों की भी मदद करते हैं। सकारात्मक सोच से प्रोत्साहन मिलता है और पुष्टीकरण की मदद से लक्ष्य प्राप्ति अवश्यंभावी है। एक कर्मठ कार्यकर्ता अपने आप ही एक बेहतर और सफल भविष्य के प्रति निश्चित रहता है।
कोई जैसा सोचता है, जैसे विचार रखता है, वैसा ही बन जाता है। उसी दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे ही कार्य करते चले जाते हैं, क्योंकि विचार रूपी ताकत इंसान को उसी दिशा में अग्रसारित करती है, जिस दिशा की ओर विचार पनप रहे हैं। मसलन, अगर किसी को डाक्टर या शिक्षक बनना है, तो वह उसी की तैयारी करता है। और एक न एक दिन अपनी तन्मयता के साथ उसे हासिल कर लेता है । सोच में दृढ़ता होना लाजिमी है, तभी वैसा बन पाते हैं। रामायण की चौपाई है - 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'। यानी जैसी भावना या सोच है, उसी प्रकार प्रभु उसे दर्शन देते हैं। जैसा सोचा जाएगा, वैसा ही बन जाओगे। केवल विचार ही नहीं, खान-पान की शुद्धता - पवित्रता भी अच्छाइयों से लबालब करने का बराबर दमखम रखती है। इसीलिए हम अक्सर बड़े-बुजुर्गों को कहते सुन सकते हैं कि सात्विक भोजन खाने और पेय पीने वालों के विचार भी दूषित नहीं रहते। यानी जैसा खाएंगे अन्न, वैसा होगा मन । और जैसे पिएंगे पानी, वैसी होगी वाणी भी । किसी ने इस हद तक कहा है कि 'शब्द' का भी अपना एक 'स्वाद' है, बोलने से पहले स्वयं 'चख' लीजिए। अगर खुद को 'अच्छा' नहीं लगे, तो दूसरों को मत परोसिए। इसीलिए खानपान और विचार से लेकर बोलचाल तक अच्छा बनना जरूरी है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब