Editorial: एक मशहूर कथन है- मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है, पर हर जगह गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। यह कथन पश्चिमी विचारक रूसो का है। जीन जैक्स रूसो । उन्होंने मनुष्य की सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण करते हुए यह बात कही थी। उनकी किताब है 'सोशल कान्ट्रैक्ट'। उसका ही कथन है यह। पश्चिम के विचारक मुख्य रूप से पदार्थवादी हैं। उनकी चिंता के केंद्र में मनुष्य की भौतिक जरूरतें हैं। इसलिए उन्होंने संपत्ति के अर्जन और वितरण पर कुछ अधिक चिंतन किया है। मानवीय अधिकारों की बातें अधिक की हैं। इसलिए पश्चिम में मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए संसाधन जुटाने के प्रयास भी अधिक हुए हैं। पर, अंतिम रूप से यही देखा गया और देखा जा रहा है कि मनुष्य की भौतिक जरूरतों को पूरा कर देने भर से मनुष्य के जीवन में सुख का संचार नहीं हो जाता। वह भौतिक संपन्नता अर्जित कर भी गुलामी की बेड़ियों से मुक्त नहीं हो जाता। इसलिए कि रूसो और दूसरे पश्चिमी विचारकों ने मनुष्य की जिस स्वतंत्रता की बात की, वह दरअसल, मुक्ति नहीं है। स्वतंत्रता एक प्रकार का अवकाश भर है। अपने ढंग से जी लेने का अवकाश। जहां अपने ढंग से जीने का अवकाश हो, वहां स्वतंत्रता का अहसास होने लगता है। मगर मनुष्य को जीवन जीने के लिए स्वतंत्रता भर नहीं चाहिए। उसे वास्तविक सुख तो मुक्ति में ही मिलता है।
आकांक्षाओं के आयाम
मुक्ति का अर्थ मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति नहीं है। मुक्ति हर तरह की सांसारिक जकड़बंदियों से मुक्त होना है। भारतीय दर्शन मुक्ति की बात करता है। पश्चिमी दर्शन स्वतंत्रता की बात करता है। मनुष्य के पैदा होते ही उस पर परिवार, रिश्तों, समाज और व्यवस्था अपनी आकांक्षाओं की बौछार शुरू कर देते हैं। इस तरह मनुष्य के भीतर भी तरह-तरह की आकांक्षाएं भरती जाती हैं। उन्हीं को वह अपना कर्तव्य, अपना धर्म अपना दायित्व मान लेता है। पैदा होते ही मनुष्य में मोह उपजना शुरू हो जाता है। रिश्तों के प्रति मोह, वस्तुओं के प्रति मोह । यह मोह
उसका सबसे बड़ा बंधन है। इसी मोह में बंध कर वह दुनिया के सारे प्रपंच रचता है। संपत्ति अर्जित करने की आकांक्षा से भरता जाता है। उसके लिए तरह-तरह के तिकड़म, तरह-तरह के छल-छद्म रचता-अपनाता जाता है। भारतीय दर्शन ने जगत को माया इसी अर्थ में कहा था कि जगत मनुष्य में मोह पैदा कर उसे जकड़ने का प्रयास करता है। प्रकृति और पुरुष के रूप में इस सृष्टि की कल्पना की गई, तो उसमें भी यही माना गया कि प्रकृति पुरुष को पहले मोहाविष्ट कर उसमें चंचलता भर देती है। फिर पुरुष यानी मनुष्य संसार की मिथ्या रचना में भ्रमित हो भटकता फिरता है। भारतीय दर्शन इसी मोह, इसी भ्रम से मुक्ति की बात करता है। यह सांख्य दर्शन की बात है।
मूल्यों का सिद्धांत
मुक्ति तो हर किसी को चाहिए। इसलिए कि मनुष्य की मूल आकांक्षा मुक्ति की है। मगर हम अक्सर मुक्ति और स्वतंत्रता के बीच रास्ता भटक जाते हैं। मुक्ति के लिए प्रयास करने के • बजाय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना शुरू कर देते हैं। इसलिए कि हमारी ज्यादातर बेड़ियां भौतिक हैं। इसलिए कि वे हमारी भौतिक आकांक्षाओं से निर्मित हुई हैं। मनुष्य परिवार में पैदा होता, पलता बढ़ता है, तो वह उसकी आकांक्षाओं के साथ जीना शुरू कर देता है। उन आकांक्षाओं को पूरा करना अपना परम धर्म मानने लगता है। इसे लेकर बहुत सारे सिद्धांत निर्मित हैं, बहुत सारे नैतिक मूल्य स्थापित हैं। वही सिद्धांत और मूल्य मनुष्य को भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भटकाते रहते हैं। वह किसी आर्थिक जुड़ता है, नौकरी-पेशा अपनाता है। ये सारी चीजें व्यवस्था के नियमों, कायदे-कानूनों से जुड़ी हैं। सामाजिक और राजकीय व्यवस्था के नियमों से। ये नियम-कायदे-कानून समय के हिसाब से बदलते रहते हैं। मनुष्य का सारा संघर्ष इन्हीं नियमों से आजादी के लिए शुरू हो जाता है। मानवाधिकारों की बातें यहीं से शुरू होती हैं। यहीं से संपत्ति के समान वितरण की नैतिक मांग और शोषण के विरुद्ध संघर्ष शुरू होता है। जैसे- जैसे मनुष्य की भौतिक संपन्नता सुनिश्चित करने के प्रयास तेज होते गए, मशीनों को तेज से तेजतर कर संसाधन जुटाने की होड़ बढ़ती गई, वैसे-वैसे दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष भी तेज होते गए। शोषण के विरुद्ध आवाजें बढ़ती गईं । लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर बहुत सारे आंदोलन उठे और क्रांति के आह्वान हुए। मगर वास्तविकता यही है कि मनुष्य की स्वतंत्रता दिन-ब-दिन गाढ़े रूप में प्रश्नांकित होती गई है। मनुष्य की बेड़ियां निरंतर मजबूत होती गई हैं।
मुक्ति वैराग्य नहीं
दरअसल, जीवन की धड़कनें मनुष्य की मुक्ति में धड़कती हैं। हम अपने को जिस मनुष्य के रूप में देखते - पहचानते हैं, वह वास्तव में निर्मित मनुष्य है। उसे परिवार, रिश्तों, समाज और व्यवस्थाओं ने निर्मित किया है। उससे अलग हमारे भीतर वास्तविक मनुष्य है, जो मुक्ति का आकांक्षी है। मुक्ति का अर्थ वैराग्य नहीं है। निस्संगता है। जिस परिवार, जिन रिश्तों, समाज और व्यवस्था में रह रहे हैं, उसमें रहते हुए भी निस्संग रहना । उसके मोह में न जकड़ना । कर्तव्यों का पालन करते हुए भी किसी प्रतिदान की अपेक्षा न करना ही मुक्ति है। मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा अपने किए का प्रतिदान न प्राप्त कर पाने की है । इस प्रतिदान की आकांक्षा समाप्त हो जाए, तो हमारे भीतर आनंद की फुहारें झरनी शुरू हो जाती हैं। गीता का कर्म और फल का सिद्धांत तो अक्सर हम दोहराते हैं, पर वास्तव में उसका अनुपालन कठिन है। हम सारे काम करते ही इस आकांक्षा के साथ हैं कि उसका फल मिलेगा। उस फल से हमारा अपना, परिवार और समाज का पोषण होगा। यह पदार्थवादी आकांक्षा है। इस जकड़बंदी से छूटना ही मुक्ति का अहसास है। जिस स्वतंत्रता की बात रूसो ने की, वह वास्तव में मुक्ति की अड़चनों को बढ़ाने वाला ही है। मुक्ति मरने के बाद नहीं, जीते-जी प्राप्त करने की चीज है। इसके कुछ रास्ते योगदर्शन में मिलते हैं। केवल निस्संगता का अभ्यास हो जाए, तो मुक्ति का आनंद बरसना शुरू हो जाए। संलिप्तता नहीं, अलिप्तता ही तो मुक्ति है। संसार से मुक्ति, अपने से भी मुक्ति ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब