आंदोलनों के दौरान कई बार भारत विरोधी ताकतों को भी प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष समर्थन मिला

यह अनायास नहीं होता है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अचानक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ कोलाहल आरंभ हो जाता है।

Update: 2021-02-14 16:49 GMT

यह अनायास नहीं होता है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अचानक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ कोलाहल आरंभ हो जाता है। यह भी अनायास नहीं होता है कि हमारे देश के कुछ वैसे कलाकार और लेखक आदि जो अपनी प्रासंगिकता तलाश रहे होते हैं, वो इस कोलाहल में शामिल हो जाते हैं। यह भी अनायस नहीं होता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक नियमित अंतराल पर कुछ जाने पहचाने लोग बयान जारी करते हैं।


यह भी अनायास नहीं होता कि इस तरह के अपीलजीवी लेखक, कलाकार एकजुट होते दिखते हैं। यही सब लोग आपको दादरी कांड के दौरान भी नजर आएंगे, पुरस्कार वापसी के दौरान भी नजर आएंगे, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में भी नजर आएंगे, कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी दिखेंगे। दरअसल ये सब एक सोची समझी रणनीति के तहत होता है, जिनमें बार-बार वही चेहरे होते हैं तो इन दिनों अपने अपने क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति और प्रासंगिकता के लिए संघर्षरत हैं। खुद को प्रगतिशील कहते हैं। इनको साथ मिलता है कुछ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी जो भारत को इन्हीं की नजरों से देखते और समझते हैं।


ये ताकतें भारतीय कानूनों की उसी व्याख्या को स्वीकार करते हैं जो लेखकों-कलाकारों का ये समूह उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। इनको कई बार भारत विरोधी ताकतों का भी प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष समर्थन मिलता है। कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी ये ताकतें दिख रहीं हैं, अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी। अब इनको मौका मिला है स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी की गिरफ्तारी को लेकर।

फारुकी को हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत दी है। फारूकी को अंतरिम जमानत मिलने के बाद भारत के कई अज्ञात कुलशील लेखकों-अभिनेत्रियों और विदेशों में रह रहे लेखकों कलाकारों के एक समूह ने अपील जारी की है कि मुनव्वर के खिलाफ आरोप वापस लिए जाएं। ये इन अपीलजीवियों का लोकतांत्रिक अधिकार हो सकता है, है भी। इस अपील को जारी करनेवाले संगठनों का नाम देखेंगे तो इनकी मंशा और राजनीति दोनों स्पष्ट हो जाती है।
इन संगठनों के नाम हैं पीईएन अमेरिका, प्रोग्रेसिव इंडिया कलेक्टिव, रिक्लेमिंग इंडिया आदि। इनमें से पीईएन को छोड़कर कोई ऐसी संस्था नहीं है जिसके बारे में या जिनके काम के बारे में बहुत कुछ पता हो। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी संस्थाएं अपील करने के लिए ही बनाई जाती हैं ताकि इन अपीलजीवियों की दुकानें चलती रहें। अपीलजीवियों ने जो बयान जारी किया है उसका शीर्षक है, हास्य अपराध नहीं है (कॉमेडी इज नॉट अ क्राइम)। इसको समझने के लिए किसी शब्दकोश की या किसी टीका की आवश्यकता नहीं है।
भारत में हास्य-व्यंग्य की बहुत लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। जब से ये स्टैंड अप कॉमेडियन नाम की जमात आई है जिसने हास्य के नाम पर फूहड़ता,अश्लील टिप्पणियां या फिर देवी-देवताओँ के बारे में भद्दी टिप्पणियां शुरू कर दी हैं तब से इनकी आलोचना आरंभ हुई है। हास्य लोगों को प्रसन्न करने के लिए होता है किसी को अपमानित करने के लिए नहीं। व्यंग्य तो व्यवस्था पर चोट करती है किसी व्यक्ति या समूह की धार्मिक आस्था पर नहीं। लेकिन जब हास्य की आड़ में एजेंडा चलाया जाए, जब हास्य की आड़ में विचारधारा विशेष का पोषण होने लगे, जब हास्य की आड़ में धार्मिक आस्थाओं पर चोट होने लगे तो स्वाभाविक है कि समाज में उद्वेलन होगा।
जब उद्वेलन होगा तो विरोध भी होगा, जब विरोध होगा तो कानून के दखल की अपेक्षा भी होगी। कानून जब दखल देगी तो उसके लिए संविधान सर्वोपरि होगा। और संविधान अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में क्या कहता है, उसको देखने की जरूरत पड़ेगी। इस स्तंभ में इस बात को कई बार कहा जा चुका है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी असीमित नहीं है। जो अनुच्छेद हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है वहीं पर इस बात की भी व्याख्या है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं क्या हैं। इसलिए इन स्टैंडअप कॉमेडियन को भी और इनके लिए झंडा-बैनर लेकर खड़े होनेवाले अपीलजीवियों को भी भारत के संविधान का ज्ञान होना आवश्यक है।

अब जरा नजर डालते हैं अपीलजीवी संस्थाओं पर। पीईएन इंटरनेशनल और उससे संबद्ध संस्थाएं भारत के बारे में वर्षों से अनर्गल प्रचार करते रहे हैं। दो हजार चौदह में जब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी थी तो उसके करीब साल डेढ़ साल बाद ही पीईएन इंटरनेशनल ने एक रिपोर्ट जारी की थी। उस रिपोर्ट का नाम था 'इंपोजिंग साइलेंस, द यूज ऑफ इंडियाज लॉ टू सप्रेस फ्री स्पीच'। इस रिपोर्ट को पीईएन कनाडा, पीईएन भारत और युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो की लॉ फैकल्टी ने संयुक्त रूप से जारी किया था।

उस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेकर स्थिति अच्छी नहीं है। जो शोध पत्र प्रस्तुत किया गया था उसमें दावा किया गया था 'भारत में इन दिनों असहमत होने वालों को खामोश कर देना बहुत आसान है। भारत में धर्म पर लिखना मुश्किल होता जा रहा है।' इस अध्ययन ने अपने निष्कर्ष का आधार बनाया था आमिर खान अभिनीत फिल्म 'पी के' को लेकर उठे विवाद को और अमेरिकी लेखिका वेंडि डोनिगर की पुस्तक को लेकर उठे विवाद पर। उस अध्ययन में भी दोनों ही उदाहरण अनुचित तरीके से पेश किए गए थे।

उस वक्त भी भारत के लिबरल अपीलजीवियों ने पीईएन इंटरनेशनल की उस रिपोर्ट को लेकर माहौल बनाने की असफल कोशिश की थी। पीईएन इंटरनेशनल का दावा है कि वो कवियों, लेखकों, उपन्यासकारों की वैश्विक संस्था है और वो पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति और कलात्मक आजादी के लिए काम करती है। परंतु पिछले करीब छह सात साल से तो ये संस्था भारत में राजनीति के औजार की तरह इस्तेमाल हो रही है।

संस्थाओं से अलग हटकर अरुंधति राय जैसों के वक्तव्यों का विश्लेषण करें तो ये साफ दिखता है कि इनको अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट तब दिखता है जब इनकी विचारधारा के लोगों का विरोध होता है। अरुंधति राय का तो विदेशी मंचों पर भारत विरोधी बातें कहने का लंबा इतिहास रहा है। अपनी भारत विरोधी बातों को प्रामाणिकता देने के लिए तो वो पाकिस्तान तक की तारीफ कर चुकी हैं। ये सब एक इंटरनेश्नल सिंडिकेट का हिस्सा है।

ये लोग तो भारत की छवि को बिगाड़ने के उपक्रम में ही जुटे रहते हैं और ऐसा करने का कोई भी मौका नहीं चूकते। मुनव्वर फारुकी के मामले में उनको एक बार फिर से अवसर नजर आया और वो राग विरोध गाने लगे। लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इन सबको ये बात समझ लेनी चाहिए कि भारत का लोकतंत्र अब परिवक्व हो गया है, भारत की जनता भी अब बेहद समझदार हो गई है और इन भारत विरोधी बयानों की असलियत समझ चुकी है।

अब इनसे ना तो भारत की जनता विचलित होती है और ना ही इनसे उनको बरगलाया जा सकता है। परोक्ष रूप से राजनीति करनेवाले इन लेखकों-कलाकारों को इस देश की जनता ने उनकी सही जगह बता दी है। लगातार दो लोकसभा चुनाव में इस भारत विरोधी विचार को जनता ने ना केवल खारिज किया बल्कि इसके पोषकों को भी नकार दिया।

इस नकार को भी वामपंथ के अनुयायी या उनके पोषक समझ नहीं पा रहे हैं और अब भी उन्ही पुराने औजारों से भारत की जनता को भरमाने की कोशिश कर रहे हैं। प्रसिद्ध रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने लिखा था- कम्युनिस्ट विचारधारा एक ऐसा पाखंड है, जिससे सब परिचित हैं। लेकिन नाटक के उपकरणों की तरह इसका उपयोग भाषण के मंचों पर होता है। अपीलजीवियों को ये समझना चाहिए कि विचारधारा का पाखंड अब नहीं चलनेवाला है।


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