वहम भी छूत रोगों में आता है। अतः ऐसे रोगी से बचने का प्रयास करना चाहिए जो इसका शिकार हो। अच्छा-भला-चंगा आदमी भी एक क्षण में इसकी चपेट में आ सकता है। वहम के शिकार लोगों को उजड़ते तथा बरबाद तक होते देखा गया है। उन्होंने अपना जीवन तो नरक बनाया ही है, साथ ही परिवारजनों तथा परिजनों को भी इस महामारी की चपेट में लिया है। आदमी को अन्य कोई बड़ा रोग हो जाए, परंतु वहम नहीं होना चाहिए। शंका और संदेह इस रोग के दूसरे नाम हैं। जरा-सी शंका हो जाए, उसका जब तक समाधान नहीं हो, वह बेचैन किए रहती है। पिछले दिनों मेरे साथ एक घटना घटी। मैंने बाजार से एक दिन कुछ नाश्ता लाकर किया तथा बाद में वहम हो गया कि उसमें तो कुछ विषैला पदार्थ था। फिर क्या था, रोग के लक्षण प्रकट होने लगे। जी घबराने लगा, मितली आने लगी और बेवजह पाखाना जाने की इच्छा होने लगी।
सारे शरीर में गिरावट आ गई तथा पूरा शरीर पसीने से भीग गया। भागा-भागा डॉक्टर के पास गया तो डॉक्टर ने सब कुछ सुनकर-देखकर कहा-'तुम तो ठीक हो, तुम्हें वहम हो गया है तथा वहम की दवा मेरे पास तो है नहीं!' मैंने कहा-'वहम नहीं, मुझे पसीना आ रहा है और लग रहा है कि कुछ न कुछ होने वाला है।' डॉक्टर महाशय बोले-'मेडीकल में एडवांस कुछ नहीं होता। पहले कुछ हो जाने दो, फिर निदान करेंगे। यह सब 'वहम बनाम फियर' की वजह से है। तुम जाकर आराम करो।' मैं आ तो गया, परंतु शंका का समाधान नहीं हुआ था। परेशान रहा। पत्नी से कहा कि वह मेरे हाथ-पांव दबाती रहे। मुझे नींद आई तो वह डर गई, बोली-'आप आंख बंद मत करिए, मेरा जी घबरा रहा है।' मैंने कहा-'तुम्हें भी हो गया है?' वह बोली-'क्या?' मैंने कहा-'वहम।' सारी रात वहम से पीडि़त होकर गुजारी तथा प्रातः थोड़ा नार्मल हुए। मुझे अब तो बात-बात में संदेह होने लगा है। जैसे खाने की चीज खुली थी, पता नहीं बिल्ली, कुत्ता, छिपकली मुंह दे गई हो। पानी में कुछ गिर गया है। आज दूध का रंग कुछ नीला-सा है। सब्जी में कहीं कुछ गिर तो नहीं गया। बेवजह पत्नी से झगड़ पड़ता हूं। वह लाख कहती है कि चीजें ढकी हुई तथा सुरक्षित हैं, आप व्यर्थ में वहम कम किया करो, परंतु वहम है कि अपना जोर दिखाए बिना नहीं रहता। अनेक बार दूध को फेंका, सब्जियां फेंकी तथा नए सिरे से खाने-पीने की तैयारी की गई। घर में अशांति का वातावरण बना, वह अलग था। लोग सनकी-वहमी कहने लगे, वह पृथक बात थी।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक