कूटनीति: नेपाल में बीजिंग को झटका, सियासी घटनाक्रम से भारत की उम्मीदें

एक बड़ी समस्या पैदा कर दी है और देउबा सरकार की पिछली सकारात्मक पहलों को देखते हुए उस पर भरोसा किया जा सकता है।

Update: 2022-12-17 03:08 GMT
कूटनीति में यदि निकट पड़ोसी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हो और वह बड़ी शक्ति के इशारे पर नाचने से इनकार कर दे, तो यह हमेशा खुशी की बात होती है। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री, केपीएस ओली के नेतृत्व में चीन समर्थक कम्युनिस्टों की हार से यह बात सच होती दिख रही है, जिन्होंने भारत-नेपाल संबंधों को सबसे निचले स्तर पर ला दिया था। आम चुनाव से पहले इस हिमालयी देश के तेजी से बदलते घटनाक्रम और नेपाल चुनाव आयोग द्वारा घोषित परिणाम दृढ़ता से संकेत देते हैं कि नेपाली कांग्रेस, सीपीएन-माओवादी सेंटर, सीपीएन-यूनिफाइड सोशलिस्ट, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनमोर्चा सहित पांच पार्टियों के गठबंधन का नेपाल की सत्ता में बने रहना निश्चित है।
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक छह बार नेपाल की यात्रा कर चुके हैं, जो तनावपूर्ण संबंधों को मजबूत करने के लिए भारत की उत्सुकता को दर्शाता है। शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाले गठबंधन के शासन की छोटी अवधि के दौरान भी संबंधों में थोड़ी गतिशीलता दिखी थी। नेपाल के साथ संबंधों में तब खटास आई, जब भारत ने 2015 में मधेशियों (बिहार व उत्तर प्रदेश से सटे तराई क्षेत्र के निवासी) के नागरिकता अधिकारों की रक्षा के लिए नेपाल पर दबाव बनाने के लिए नाकाबंदी की, उस समय नेपाल का नया संविधान तैयार किया जा रहा था।
यह एक खुला रहस्य है कि नेपाल में चीन की पूर्व राजदूत ने कम्युनिस्टों के दो गुटों को एकजुट रखने के लिए इस हिमालयी देश के आंतरिक मामलों में खुलेआम दखल दिया था, लेकिन बुरी तरह विफल रही, क्योंकि कम्युनिस्ट बंट गए और ओली के प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' के नेतृत्व वाले गुट ने ओली के साथ हाथ मिलाने के चीनी फरमान को मानने से इनकार कर दिया। भारत ने कोरोना महामारी के दौरान नेपाल की मदद की, जो विशुद्ध रूप से मानवीय आधार पर था और आम लोगों ने इसकी सराहना की। विशेषज्ञों का कहना है कि देउबा ने भारतीय सेना में नेपाल से 28,000 युवकों की भर्ती के लिए अग्निवीर परियोजना के क्रियान्वयन को रोक दिया था, लेकिन अब यह बाधा दूर हो जाएगी, क्योंकि मौजूदा गठबंधन जल्द ही सत्ता में आ सकता है। भारतीय सेना प्रमुख ने इन पदों को वापस लेने की धमकी दी थी, लेकिन केंद्र सरकार ने पुराने संबंधों की रक्षा के लिए इससे परहेज किया, इसलिए काठमांडू में नई सरकार गठन के बाद इसे लागू किया जा सकता है।
अमेरिका पहले ही काठमांडू में अपनी पकड़ मजबूत करने और चीन को अलग-थलग करने के लिए वित्तीय पहल कर चुका है, जो नेपाली व्यवस्था के माध्यम से इसे रोकने की कोशिश कर रहा है। देउबा की गठबंधन सरकार ने एक अलग रुख अपनाया है, क्योंकि अमेरिका आमतौर पर मुफ्त सहायता या अनुदान के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करता है, जबकि चीन की ऋण जाल नीति उधार लेने वाले राष्ट्र को भारी देनदारियों में डाल देती है और अपनी शर्तें थोपना शुरू कर देती है, जिसने पहले ही पाकिस्तान, श्रीलंका जैसे देशों और दुनिया के दर्जनों गरीब देशों को बर्बाद कर दिया है। इन चुनावों में चीन की कठपुतली ओली की पार्टी का खराब प्रदर्शन बीजिंग के लिए एक बड़ा झटका है। नेपाल की जनता ने ओली की पार्टी सीपीएन (यूएमएल) को खारिज कर दिया है और नेपाल चुनाव आयोग ने 275 सीटों वाले सदन में 165 सीटों के लिए हुए चुनाव में सभी दलों द्वारा जीती गई सीटों के विवरण की घोषणा की है, जबकि शेष 110 पदों की गणना आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर की जाएगी।
नेपाली कांग्रेस 57 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, उसके बाद सीपीएन (यूएमएल) ने 44, सीपीएन (माओवादी सेंटर) ने 18, सीपीएन (यूनिफाइड सोशलिस्ट) ने 10 सीटें जीती हैं। विगत नवंबर में हुए आम चुनाव में संसद की कुल 165 सीटों में से पांच पार्टियों के गठबंधन ने 85 सीटों पर जीत हासिल की है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस प्रमुख, शेर बहादुर देउबा और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) ने संयुक्त रूप से किया था। इसी गठबंधन की नई सरकार बननी तय है। विशेषज्ञों के अनुसार, देउबा को सरकार बनाने के लिए दस सांसदों का समर्थन चाहिए और छोटी पार्टियां सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार हैं। विश्लेषकों के अनुसार, यह स्थापित तथ्य है कि चीन भारत और नेपाल के बीच संबंधों के बिगड़ने की ताक में है। लेकिन अब चीन बैकफुट पर होगा, क्योंकि नई सरकार भारत के साथ संबंध सुधारने की इच्छुक होगी, जो चीन के लिए एक बुरी खबर है।
दूसरी बात, चीन ने नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल देना शुरू कर दिया था और वर्ष 2017 में नेपाली कांग्रेस को हराकर सत्ता में आए कम्युनिस्टों के ओली गुट को पूरी तरह जीत लिया था। अब नई सरकार को भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने और सुधारने में कोई बाधा नहीं आएगी। तीसरी बात, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ओली शासन के दौरान नेपाल को लुभाने के लिए व्यक्तिगत प्रयास किए थे और दो बार नेपाल का दौरा किया था, जिसके चलते अरबों डॉलर की वित्तीय सहायता की घोषणाएं हुई थीं। चौथी बात, नेपाल में पूर्व चीनी राजदूत ने ओली सरकार को बचाने के लिए खुलेआम पैरवी की थी और प्रचंड गुट पर एकजुट होने के लिए दबाव बनाने की कोशिश की थी, लेकिन यह कदम बहुत बड़ा फ्लॉफ शो साबित हुआ, क्योंकि नेपाली कांग्रेस और प्रचंड सहित दो अन्य दलों ने साल भर पहले सदन में ओली की अपमानजनक हार सुनिश्चित की।
विशेषज्ञों का कहना है कि नेपाल में चीन के निवेश का दोहरा मकसद है। पहला, अच्छे रिटर्न के साथ बड़े पैमाने पर निवेश और इस तरह नेपाल को भारत से दूर करना। यह नेपाल में चीन के पक्ष में राजनीतिक माहौल बनाने में भी मदद करता है। दूसरा, भारत के साथ नेपाल की खुली सीमा बड़े पैमाने पर भारत में चीनी सामानों की तस्करी की सुविधा प्रदान कर सकती है। देउबा चीन को नाराज किए बिना उन पहलों की जांच कर सकते हैं, जिसने नेपाल को कर्ज के जाल में फंसा रखा है।
नेपाल और भारत के बीच संबंधों का सामान्य होना चीन को मात देने के लिए रणनीतिक रूप से आवश्यक है, जिसने पहले ही वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर एक बड़ी समस्या पैदा कर दी है और देउबा सरकार की पिछली सकारात्मक पहलों को देखते हुए उस पर भरोसा किया जा सकता है।

  सोर्स: अमर उजाला 

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