भगवान विष्णु के रूप की तरह धनवंतरी की भी चार भुजाएं हैं. उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं. जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुए हैं. इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है. इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है.
इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं. आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है. सुश्रुत संहिता के अनुसार-
ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे,
तस्मादश्विनौ, अश्विभ्यामिन्द्रः इन्द्रादहमया
त्विह प्रदेपमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः
यानि ब्रह्मा ने एक लाख श्लोक का आयुर्वेद रचा, जिसमें एक हजार अध्याय थे. उनसे प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने और इन्द्र से धनवंतरी ने पढा. धनवंतरी से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की. नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार "धनवंतरी प्रणीत चिकित्सा शास्त्र, वैद्य विद्या ही आयुर्वेद है."
वायु तथा ब्रह्माण पुराणों में धनवंतरी को आयुर्वेद का उद्धारक बताया गया है
पौराणिक काल में धनवंतरी भगवान के रूप में पूजनीय थे- 'धनवंतरीभगवान् पात्वपथ्यात्'. चरक संहिता में भी धनवंतरी को आहुति देने का विधान है. धनवंतरी काशी के राजा थे. पुराणों में काशिराज दिवोदास का एक नाम धनवंतरी कहा जाता है. सुश्रुत ने शल्यशास्त्र के अध्ययन की इच्छा प्रकट की थी, इसलिए धनवंतरी ने इसी अंग का उपदेश दिया. सुश्रुत के पांच स्थानों में (सूत्र, निदान, शरीर चिकित्सा और कल्प में) शल्य विषय ही प्रधान है. इसीलिए कुछ लोगों ने धनवंतरी शब्द का अर्थ ही शल्य में पारंगत किया है. (धनुः शल्यं तस्य अन्तं पारमियर्ति गच्छतीति धनवंतरीः)
बाद में धनवंतरी एक सम्प्रदाय बना जिसका संबंध शल्य शास्त्र से है. जो भी शल्य शास्त्र में निपुण होते थे, उन सबको धनवंतरी कहा जाता था. इसी से चरक संहिता में धनवंतरीयाणां बहुवचन मिलता है. स्पष्ट है, आदि उपदेष्टा धनवंतरी थे. इन्हीं के नाम से यह अंग चल पड़ा.
गरुण और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार :- 'गरुड़पुराण' और 'मार्कण्डेयपुराण' के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धनवंतरी वैद्य कहलाए थे.
विष्णु पुराण के अनुसार :- धनवंतरी दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं. इसमें बताया गया है वह धनवंतरी जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है. भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे.
ब्रह्म पुराण के अनुसार :- काशी के संस्थापक 'काश' के प्रपौत्र, काशिराज 'धन्व' के पुत्र, धनवंतरी महान चिकित्सक थे. जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ. राजा धन्व ने अज्ज देवता की उपासना की और उनको प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि हे भगवन आप हमारे घर पुत्र रूप में अवतीर्ण हों उन्होंने उनकी उपासना से संतुष्ट होकर उनके मनोरथ को पूरा किया जो संभवतः धन्व पुत्र तथा धनवंतरी अवतार होने के कारण धनवंतरी कहलाए. जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ.
इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे. बनारस में कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धनवंतरी की पूजा हर कहीं होती हैं. कैसा अद्भुत इतिहास है इस शहर का शंकर ने विषपान किया, धनवंतरी ने अमृत प्रदान किया और काशी कालजयी नगरी बन गयी.
धनवंतरी के तीन रूप मिलते हैं.
– समुद्र मन्थन से उत्पन्न धनवंतरी प्रथम.
– धन्व के पुत्र धनवंतरी द्वितीय.
– काशिराज दिवोदास धनवंतरी तृतीय.
धनवंतरी प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है. जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, कश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है. इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है. इसमें भगवान धनवंतरी के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है.
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी कुमार को था, वही पौराणिक काल में धनवंतरी को प्राप्त हुआ. जहां अश्विनी के हाथ में मधुकलश था, वहां धनवंतरी को अमृत कलश मिला. क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धनवंतरी को विष्णु का अंश माना गया. विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धनवंतरी और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (3.51) में आया है. उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है-
'सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। (ब्र.वै. 3.51)
जिन्हे वासुदेव धनवंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हैं, सर्व भयनाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धनवंतरी आप सब लोगों के आरोग्य की रक्षा करें.