आपके ध्यान में होगा कि 2012 में मनमोहन सिंह सरकार देश में ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए तमिलनाडु में रूस की सहायता से दो परमाणु रिएक्टर स्थापित करना चाहती थी। तब कुछ एनजीओ यानी गैर सरकारी संस्थाओं ने पर्यावरण के नाम पर इस प्रकल्प का विरोध करना शुरू कर दिया था। धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया। तर्क यही था कि इससे पर्यावरण प्रदूषित होगा। कितना प्रदूषण फैलेगा, मीडिया में इसके आकड़े भी दिए जाने लगे। ऊपर से देखने पर उनकी यह चिंता स्वाभाविक ही लग रही थी। आखिर सारी दुनिया इस समस्या से जूझ रही थी।
सरकार ने प्रदर्शन कर रहे लोगों को मनाने की भरसक कोशिश की, उनकी कुछ मांगें मान भी लीं, लेकिन प्रकृति की रक्षा का सारा भार अपने कंधों पर लिए वे लोग टस से मस नहीं हो रहे थे। तब मनमोहन सिंह ने कुछ एनजीओ को सार्वजनिक रूप से ताड़ना की और ख़ुलासा किया कि सरकार को पता है कि इन एनजीओ को विदेश से पैसा आ रहा है ताकि किसी प्रकार से परमाणु रिएक्टर प्रकल्प को रोका जा सके। इस तरह कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना था। हिमाचल में रोहतांग सुरंग बन जाने से जहां वहां के स्थानीय लोगों को लाभ हुआ, पर्यटन का विकास हुआ, वहीं सेना की शक्ति को सुदृढ़ करने में भी यह सुरंग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अब उत्तराखंड में भी सरकार तीन सड़कों यानी ऋषिकेश से माना, ऋषिकेश से गंगोत्री और टनकपुर से पिथौरागढ़ को चौड़ा करना चाहती है। ये सड़कें चार धाम यात्रा मार्ग का भी हिस्सा हैं और भारत-तिब्बत सीमा तक सेना को सामान पहुंचाने का रास्ता सुगम बनाती हैं।
ज़ाहिर है इससे जहां स्थानीय लोगों को लाभ मिलेगा, पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, वहीं भारत-तिब्बत सीमा पर भारतीय सेना की पहुंच सुगम बनाने व लाजिस्टिक्स सप्लाई लाइन सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी। इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि इन सड़कों को चौड़ा करने की अनुमति प्रदान की जाए। लेकिन जैसे-जैसे हिमालय में सुरक्षा के लिहाज़ से निर्माण कार्य तेज हो रहा है, वैसे-वैसे कुछ लोगों की चिंता प्रकृति की रक्षा के लिए बढ़ने लगी है। चार धाम यात्रा की सड़कों को चौड़ा करने के प्रकल्प को रुकवाने का आग्रह करते हुए एक एनजीओ 'सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून' ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। तर्क यहां भी वही पुराना है, प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा की चिंता। इस एनजीओ के वकील कॉलिन गोंजालेस और मोहम्मद आफताब ने कोर्ट में तर्क दिया है कि सड़कों को चौड़ा करने से हिमालय में भूस्खलन होगा, ग्लेशियर पिघल जाएंगे, इसलिए इस प्रकल्प को रोकना होगा।
उच्चतम न्यायालय की सुनवाई कर रही पीठ ने याचिकाकर्ता से पूछा कि सीमा के पार चीन हिमालय क्षेत्र में सड़कें बना रहा है, वहां भी तो हिमालय की प्रकृति वैसी ही होगी जैसी इधर है। दरअसल पूरे पर्वतीय क्षेत्रों में विकास बनाम प्रकृति संरक्षण की बहस काफी लंबे अरसे से छिड़ी हुई है। बीच-बीच में यह बहस उच्चतम न्यायालय में भी पहुंच जाती है। लेकिन जब से चीन ने भारत-तिब्बत सीमा पर सड़कों का जाल ही नहीं बिछा दिया, बल्कि गोर्मो से ल्हासा तक रेल पटरी भी बिछा दी है, तब से हिमालय क्षेत्रों में आधारभूत संरचनात्मक ढांचा विकसित करना और भी जरूरी हो गया है। पिछले कुछ अरसे से चीन आक्रामक भी हो गया है। इसका कारण भी यही है कि उसे लगता है भारत उत्तरी सुरक्षा के प्रति जाग गया है। अभी उसे रोक दिया जाए तो बेहतर होगा, बाद में ऐसा करना संभव नहीं होगा।
रोकने के दो तरीके हैं। सीमा पर भारतीय सेना को डराया जाए, जैसा प्रयास उसने डोकलाम और गलवान में किया। लेकिन चीन का यह प्रयोग सफल नहीं हुआ। दूसरा तरीका यह कि किसी तरह हिमालय क्षेत्र में विकसित हो रहे आधारभूत संरचनात्मक ढांचे को रुकवाया जाए। देखना होगा कि आने वाले दिनों में यह रुकवाने के लिए कॉलिन गोंजालेस और मोहम्मद आफताब कैसे-कैसे तर्क देते हैं। उच्चतम न्यायालय में सुनवाई कर रही पीठ ने सुनवाई के दौरान उचित ही कहा है कि भूस्खलन और अन्य विपरीत घटनाओं का कारण केवल सड़क निर्माण नहीं है, उसके अन्य कारण भी हैं। चीन को देखते हुए हिमालय की सुरक्षा पहला दायित्व है। इसी के चलते पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी। ऐसे ही लोगों और संगठनों के कारण हिमालयी क्षेत्र में भारत की ओर से किए जा रहे सुरक्षात्मक विकास कार्यों में बाधा पैदा करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन लगता है भारत सरकार ने अब तय कर लिया है कि वह हिमालय की सुरक्षा के दायित्व का पालन बखूबी करेगी। चीन द्वारा रोकने की कई कोशिशें की जा चुकी हैं, लेकिन इस बार भारत सरकार उनकी इस चाल को समझ गई है।
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कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार