ऐसे नहीं होता विकास

अधिकारियों की लापरवाही, उनका भ्रष्टाचार और बिल्डरों से मिलीभगत कैसे सरकारी राजस्व का नुकसान करा सकती है और एक खास इलाके में पूरे हाउसिंग सेक्टर का भट्ठा बैठा सकती है

Update: 2021-12-20 02:01 GMT

अधिकारियों की लापरवाही, उनका भ्रष्टाचार और बिल्डरों से मिलीभगत कैसे सरकारी राजस्व का नुकसान करा सकती है और एक खास इलाके में पूरे हाउसिंग सेक्टर का भट्ठा बैठा सकती है, यह नोएडा में हुए लैंड अलॉटमेंट्स पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की ताजा रिपोर्ट से जाहिर हो गया है। कहने को यह दिल्ली से सटे एक शहर नोएडा की कहानी है, लेकिन इससे निकले सबक देश के तमाम बड़े शहरों, महानगरों पर लागू होते हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार डिवेलपमेंट अथॉरिटीज को भी सीएजी की जांच के दायरे में रखने की इजाजत दी और फिर सीएजी ने 2005-06 से 2017-18 की अवधि में नोएडा में लैंड अलॉटमेंट से जुड़े कार्यों, फैसलों, नतीजों पर बारीकी से नजर डाली तो कदम-कदम पर अनियमितताएं और साजिशें नजर आईं। इस वजह से न केवल सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ बल्कि इस अवधि में कुल प्रस्तावित 1.3 लाख ग्रुप हाउसिंग फ्लैट्स के 44 फीसदी यानी 57000 फ्लैट्स ऑक्युपैंसी सर्टिफिकेट नहीं पा सके हैं। इन फ्लैटों के बायर्स आज भी अपने फैसले पर पछताने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे।
सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, नोएडा अथॉरिटी ने इस दौरान नियम-कानून में मनमाने ढंग से फेरबदल किए। उदाहरण के लिए, अथॉरिटी ने ग्रुप हाउसिंग के लिए भूमि आवंटन की वित्तीय पात्रता संबंधी शर्तों को काफी आसान बना दिया। पश्चिम देशों में आई मंदी का हवाला देते हुए न केवल अलॉटीज के लिए अपफ्रंट पेमेंट की राशि कम कर दी गई बल्कि कम नेटवर्थ वाली कंपनियों की निविदा भी स्वीकार की जाने लगी। नतीजा यह हुआ कि 500 करोड़ रुपये का प्लॉट 75 करोड़ रुपये नेटवर्थ वाली कंपनी को 50 करोड़ रुपये के अपफ्रंट पेमेंट पर ऑफर होने लगा।
सीएजी रिपोर्ट साफ-साफ बताती है कि सीमित वित्तीय क्षमता वाले बिल्डरों को बड़े-बड़े प्लॉट मिलना ही वह मुख्य कारण रहा, जिससे बहुत सारे हाउसिंग प्रॉजेक्ट्स बरसों तक लटके रह गए। गौर करने की बात है कि नोएडा में एक दशक से ज्यादा की इस अवधि के दौरान कुल 113 प्रॉजेक्ट्स में से 63 फीसदी ही ऐसे हैं, जो पूरे या आंशिक रूप से पूरे हुए।
लापरवाही का कैसा आलम रहा यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि नोएडा अथॉरिटी पिछले 45 वर्षों में लैंड प्राइसिंग पॉलिसी तक नहीं बना सकी। सालो-साल जमीन की कीमतें मनमाने ढंग से तय की जाती रहीं। इनपुट कॉस्ट तक का ख्याल रखे बगैर। इससे बिल्डरों को तो फायदा हुआ, लेकिन सरकारी राजस्व का नुकसान होता रहा। बहरहाल, चूंकि सीएजी की यह रिपोर्ट यूपी चुनावों से कुछ पहले आई है, इसलिए डर है कि यह चुनावी मुद्दे के रूप में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का निशाना न बन जाए। ऐसा हुआ तो इसकी गंभीरता कम हो सकती है, लेकिन इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट से आवश्यक सबक न लेना गवर्नेंस के लिहाज से बहुत बड़ा नुकसान होगा।


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